आज जरूरत हैं स्वामी सहजानन्द सरस्वती जैसे किसान नेता की


स्वामी सहजानन्द सरस्वती जी राष्ट्रवादी वामपंथ के अग्रणी सिद्धांतकार, अथक परिश्रमी, वेदान्त और मीमांसा के महान पंडित तथा संगठित किसान आंदोलन के जनक एवं संचालक थे। स्वामीजी का जन्म उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में सन् 22 फरवरी 1889 में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था। बचपन के दौरान हीं उनका मन आध्यात्म में रमने लगा। दीक्षा को लेकर उनके बालमन में धर्म की इस विकृति के खिलाफ विद्रोह पनपा। धर्म के अंधानुकरण के खिलाफ उनके मन में जो भावना पली थी कालांतर में उसने सनातनी मूल्यों के प्रति उनकी आस्था को और गहरा किया।

वैराग्य भावना को देखकर इनके पिता ने सन् 1905 में इनकी बाल्यावस्था में ही विवाह कर दिया। संयोग ऐसा रहा कि इनका गृहस्थ जीवन शुरू होने से पहले ही इनकी पत्नी का सन् 1906 में स्वर्गवास हो गया तदोपरांत सन् 1907 में इन्होंने ने काशी जाकर स्वामी अच्युतानन्द जी से विधिपूर्वक दशनामी दीक्षा लेकर नौरंग राय से स्वामी सहजानन्द सरस्वती हो गये। काशी के कुछ पण्डितों ने इनके संन्यास ग्रहण करने पर विरोध भी किया कि ब्राह्मणों के सिवा किसी और जाती को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं हैं। स्वामी सहजानन्द जी ने इसे चुनौती के रुप में स्वीकार किया और उन्होंने विभन्न मंचों पर शास्त्रार्थ करके ये साबित कर दिया कि भूमिहार भी ब्राह्मण हीं हैं और हर योग्य व्यक्ति संन्यास धारण करने की पात्रता रखता है।
महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन बिहार में गति पकड़ा तो सहजानंद उसके केन्द्र में थे। उन्होंने चारों तरफ घुम घुमकर अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। ये वह समय था जब स्वामी जी भारत को समझ रहे थे। जब वह जनता से मिल रहें थे तो उन्होंने ने देखा देश में किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर है। स्वामी सहजानन्द जी का मन एक बार फिर नये संघर्ष की ओर उन्मुख होता है। स्वामी जी किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ डट जाने का स्वभाव रखते थे। गिरे हुए को उठाना अपना प्रधान कर्तव्य मानते थे। दण्डी संन्यासी होने के बावजूद सहजानंद ने रोटी को हीं भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया। स्वामीजी ने नारा दिया था- “जो अन्न वस्त्र उपजाएगा,अब सो कानून बनायेगा।ये भारतवर्ष उसी का है,अब शासन वहीं चलायेगा।”अपने स्वजातीय जमींदारों के खिलाफ भी उन्होंने आंदोलन का शंखनाद किया। सचमुच जो श्रेष्ठ होते हैं वे जाति, धर्म, सम्प्रदाय और लैंगिक भेद-भाव से ऊपर होते हैं। हजारीबाग केन्द्रीय कारा में रहते हुए उन्होंने एक पुस्तक लिखी- “किसान क्या करें” इस पुस्तक में अलग-अलग शीर्षक से सात अध्याय हैं- 1. खाना-पीना सीखें, 2. आदमी की जिंदगी जीना सीखें, 3. हिसाब करें और हिसाब मांगें, 4. डरना छोड दें, 5. लडें और लडना सीखें, 6. भाग्य और भगवान पर मत भूलें और 7. वर्गचेतना प्राप्त करें। स्वामी जी ने बड़ी गम्भीरता से देखा है कि किसानों की हाड़-तोड़ मेहनत का फल किस तरह से जमींदार, साहूकार, बनिए, महाजन, पंडा-पुरोहित, साधु-फकीर, ओझा-गुणी, चूहे यहां तक कि कीड़े-मकोड़े और पशु-पक्षी तक गटक जाते हैं। वे अपनी किताब में बड़ी सरलता से इन स्थितियों को दशार्ते हुए किसानों से सवाल करते हैं कि क्या उन्होंने कभी सोचा है कि वे जो उत्पादन करते हैं, उस पर पहला हक उनके बाल-बच्चे और परिवार का है? उन्हें इस स्थिति से मुक्त होना पड़ेगा। सन् 1927 ई. ये वो वर्ष है जिसमें स्वामी जी ने पश्चिमी किसान सभा की नींव रखी।
स्वामी जी ने “मेरा जीवन संघर्ष” में लिखा है- “मुनि लोग तो स्वामी बन के अपनी ही मुक्ति के लिए एकांतवास करते हैं। लेकिन, मैं ऐसा हर्गिज नहीं कर सकता। सभी दु:खियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए। मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा और मरूँगा-जीऊँगा।” स्वामी सहजानन्द जी का मानना था कि यदि हम किसानों, मजदूरों और शोषितों के हाथ में शासन का सूत्र लाना चाहते हैं तो इसके लिए क्रांति आवश्यक है। क्रांति से उनका तात्पर्य व्यवस्था परिवर्तन से था। शोषितों का राज्य क्रांति के बिना सम्भव नहीं और क्रांति के लिए राजनीतिक शिक्षण जरूरी है। किसान-मजदूरों को राजनीतिक रूप से सचेत करने की जरूरत है ताकि व्यवस्था परिवर्तन हेतु आंदोलन के दौरान वे अपने वर्ग दुश्मन की पहचान कर सकें। इसके लिए उन्हें वर्ग चेतना से लैस होना होगा। यह काम राजनीतिक शिक्षण के बिना सम्भव नहीं। “किसान क्या करे” पुस्तक में एक जगह स्वामी जी लिखते हैं– “वंश परम्परा, कर्म, तकदीर, भाग्य और पूर्व जन्म की कमाई जैसी होगी, उसी के अनुसार सुख-दुख मिलेगा, चाहे हजार कोशिश की जाए। भाग्य और भगवान की फिलासफी और कबीर की कथनी ने उन्हें इस कदर अकर्मण्य बना दिया है कि सारी दलीलें और सब समझाना-बुझाना बेकार है। इस तरह शासकों और शोषकों ने, धनियो और अधिकारियों ने एक ऐसा जादू उनपर चलाया है कि कुछ पूछिए मत। वे लोग मौज करते, हलवा-पुड़ी उड़ाते हैं। मोटरों पर चलते हैं और महल सजाते हैं, हालांकि खुद कुछ कमाते-धमाते नहीं। खूबी तो यह है कि यह सब भगवान की ही मर्जी है। वह ऐसा भगवान है जो हाथ धरे कोढियों की तरह बैठने वाले, मुफ्तखोरों को माल चखाता है। मगर दिन-रात कमाते-कमाते पस्त किसानों को भूखो मारता है।” स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने काफी पहले अविराम संघर्ष का उद्घोष करते हुए कहा था कि यह लड़ाई तब तक जारी रहना चाहिए जबतक शोषक राजसत्ता का खात्मा न हो जाए। जब सन 1934 में बिहार प्रलयंकारी भूकम्प से तबाह हुआ तब स्वामी सहजानन्द जी ने बढ़ चढ़कर राहत पुनर्वास में काम किया इस दौरान स्वामी जी ने देखा अपना सब कुछ गंवा चुके किसान मजदूर को जमींदार के लठैत कर वसुल रहें हैं तब स्वामी जी ने किसानों के आवाज में नारा दिया कि “कैसे लोगे मालगूजारी, लठ्ठ हमारा जिÞदाबाद।” किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून 1950 को पंचतत्व में विलीन हो गयें। उनके निधन के साथ ही भारतीय किसान आन्दोलन का सूर्य अस्त हो गया। उनके निधन पर दिनकर जी ने कहा था आज दलितों का सन्यासी चला गया। उनके जीते जी जमींदारी प्रथा का अंत तो नहीं हो सका लेकिन आजादी मिलने के साथ ही जमींदारी प्रथा का कानून बनाकर खत्म कर दिया गया। लेकिन आज भी किसान शोषण दोहन के शिकार बने हुए हैं कर्ज भुख से किसान आत्महत्या कर रहें हैं दुर्भाग्य है कि आज हर राजनीतिक दल के पास किसान सभा हैं उनके नाम पर कई संगठन भी हैं लेकिन आज स्वामी सहजानन्द जी जैसा निर्भीक तथा अथक परिश्रमी नेता दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता।