लाइलाज ‘आटिज्म’ का इलाज कर रहे मणिलाल


(डॉ. रजनीश सिंह)
वाराणसी।(काशीवार्ता) आटिज्म बीमारी अब लाइलाज नहीं है। भले ही सभी डाक्टर इस बीमारी को लेकर अपने दरवाजे बंद कर दें लेकिन बाबा की नगरी में एक ऐसे न्यूरोथेरेपिस्ट है, जहां आटिज्म से ग्रसित बच्चों के लिए हमेशा दरवाजे खुले रहते है। वे ऐसे बच्चों की निस्वार्थ, नि:शुल्क सेवा में लगे हैं पिछले पांच सालों से।
हम बात कर रहे हैं सिगरा स्थित गांधीनगर में न्यूरोथेरेपिस्ट एमएल विश्वकर्मा की जिनका जीवन ही ऐसे बच्चों की सेवा के लिए समर्पित है। सुबह ८ बजे जैसे ही वह क्लिनिक पहुंचते है, आटिज्म से ग्रसित बच्चों की लाइन लगी रहती है। कोई बच्चा बोल नहीं पा रहा है तो कोई अपनी ही दुनिया में खोया रहता है। यही नहीं कई बच्चे ऐसे भी आते हैं, जो रोते ही नहीं है। ऐसे बच्चों को लेकर मां-बाप की परेशानी देखने लायक रहती है। आटिज्म की बीमारी के चलते स्कूल ऐसे बच्चों का एडमिशन ही नहीं लेते है। यह अभिभावकों के लिए काफी पीड़ादायक होती है। अगर आटिज्म से ग्रसित बच्चों का स्कूल में एडमिशन हो जाए तो बच्चों के साथ बच्चों के साथ रहने पर उन्में काफी हद तक सुधार आ सकता है। ऐसा कहना है न्यूरोथेरेपिस्ट मणिलाल विश्वकर्मा का। नामी-गिरामी डाक्टर भी आटिज्म से ग्रसित बच्चों के इलाज के लिए न्यूरोथेरेपिस्ट के यहां ही भेजते हैं।
न्यूरोथिरेपिस्ट मणिलाल विश्वकर्मा की मानें तो आटिज्म का मेडिकल साइंस में कोई इलाज ही नहीं है। न्यूरोथिरेपी चिकित्सा द्वारा शरीर के रोग-प्रतिकारक क्षमता को बढ़ा दिया जाता है जिससे वायरस या बैक्टिरियां दोनों को खत्म करने की क्षमता इंसान के शरीर में ही मौजूद रहती है। कुछ वंशानुगत बीमारियां होती है या कुछ जेनेटिक बीमारियां भी है जिनका मेडिकल की डिक्शनरी में कोई इलाज नहीं है। पर शरीर के अंदर ही बिगड़ी हुई समस्या को शरीर के अंगों के ऊपर प्रेशर देकर उन बीमारियों को न्यूरोथेरेपी ट्रीटमेंट द्वारा काफी हद तक ठीक किया जाता है। आटिज्म से ग्रसित बच्चों को इस पद्धति से काफी लाभ मिलता है और काफी हद तक सुधार होता है।
आटिज्म के लक्षण
एबच्चा आमतौर पर अन्य लोगों में दिलचस्पी नहीं रखता। एआटिज्म वाले बच्चे लोगों से नजर नहीं मिलाते बल्कि वह लोगों के हाथ में सामान की तरफ निगाह रखते है। एऐसे बच्चे ज्यादा मुस्कुराते नहीं है, बोल भी नहीं पाते है। जब उनको अच्छा लगता है तभी वह थोड़ा बहुत मुस्कुराते है। एऐसे बच्चे अकेले रहना ज्यादा पसंद करते है, अपना कोई दोस्त भी नहीं बनाते है। एअपनें माता-पिता से प्यार भी नहीं करते, उन्हें पता ही नहीं होता कि यह क्या है। एऐसे बच्चों के लिए समझना मुश्किल होता है कि कौन अपना है कौन गैर। एआटिज्म के कई बच्चे भाषा भी नहीं समझते है, इशारे पर करने भी कुछ नहीं करते। एमाता-पिता के दबाव में अगर कोई कार्य कराया जाता है तो वह बेमन से करते है।
बचपन से ही शुरू होता है आटिज्म
मणिलाल विश्वकर्मा का कहना है कि आटिज्म की शुरू आत बचपन में ही शुरू हो जाती है और जीवन के अंतिम समय तक चलती है। यह शारीरिक, मानसिक क्षमता को प्रभावित करता है जिसके चलते बच्चे अपने जीवनकाल में एक दूसरे के बात-विचार, रहन-सहन व व्यवहार को समझने की शक्ति खो देते है। आटिज्म की बीमारी एक प्रकार का नहीं बल्कि कई प्रकार के होते है। लोग सोचते है कि आटिज्म एक आम बीमारी है लेकिन ऐसा नहीं है आटिज्म एक प्रकार का रोग है। यह लड़कियों की तुलना में लड़कों में ज्यादा पाया जाता है।