मेराज हत्याकांड : क्या न्यायिक जांच से सच सामने आएगा?


(विशेष प्रतिनिधि)
वाराणसी(काशीवार्ता)। चित्रकूट जेल में ईद के दिन बसपा नेता भाई मेराज की हत्या हुए लगभग एक हफ्ता होने को है। इस दौरान शासन के आदेश पर तीन जांच टीमें इस सनसनीखेज हत्याकांड की जांच कर रही हैं। परन्तु अभी तक की जांच में क्या निष्कर्ष निकला यह बताने को कोई तैयार नहीं है। अब जांच की कड़ी में एक और जांच जुड़ गयी है। चित्रकूट के जनपद न्यायाधीश ने सिविल जज सीनियर डिवीजन अरुण कुमार यादव को इस कांड की जांच सौंपी है। न्यायिक जांच की सिफारिश चित्रकूट के जिलाधिकारी ने की थी। जाहिर सी बात है जिलाधिकारी को या तो पुलिस जांच पर भरोसा नहीं था या यूं कहें कि कहीं न कहीं जिलाधिकारी को यह महसूस हुआ होगा कि इस कांड में जेल कर्मचारियों सहित अन्य सफेदपोश लोगों की भूमिका हो सकती है अत: पुलिस इस मामले की निष्पक्ष जांच नहीं कर सकती।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या न्यायिक जांच में इस दुस्साहसिक कांड की सच्चाई सामने आएगी और क्या इस कांड के असली साजिशकर्ताओं के चेहरे से नकाब उतरेगा। चित्रकूट से अभी तक जो खबरें छन-छन के बाहर आ रही हैं उससे तो यही पता चलता है कि एक सोची-समझी साजिश के तहत इस हत्याकांड को अंजाम दिया गया। मेराज के परिजनों के आरोपों को अगर सच माना जाय तो मेराज की किसी से दुश्मनी नहीं थी। यहां तक कि कातिल अंशु दीक्षित से भी उसके अच्छे संबंध थे। घरवालों का आरोप है कि घटना के बाद अंशु दीक्षित का मोबाइल फोन गायब कर दिया गयाहै। इस मोबाइल से पता चलता कि दीक्षित की किन-किन लोगों से बातचीत होती थी वह किनके संपर्क में था, पर्दे के पीछे से कौन दिशा निर्देश दे रहा था आदि-आदि। न्यायिक जांच आयोग के सामने घटना की तह तक पहुचने में कई चुनौतियों का सामना करना होगा। पहली तो यह कि घटना वाले दिन जेल में सुबह सुबह क्या क्या हुआ था। इसका पूरा खाका खींचना होगा। इसके लिये न्यायाधीश को तमाम बंदियों के बयान दर्ज करने होंगे। यह भी पता लगाना होगा कि क्या इन दोनों हत्यायों के बाद अंशु दीक्षित ने आत्मसमर्पण करने की कोशिश की थी? अगर की थी तो फिर उसे गोली क्यों मारी गयी। क्या दीक्षित को जिंदा पकड़ा जा सकता था।अगर पुलिस ने गोली चलायी भी तो सीधे सीने में एक दर्जन गोलियां क्यों उतार दी। हाथ पैर में भी गोली मारी जा सकती थी। जब मुम्बई हमले के आरोपी अब्दुल कसाव को घायल करके जिंदा पकड़ा जा सकता था फिर दीक्षित को क्यों नहीं। जबकि पुलिस का खुद मानना है कि मेराज और मुकीम को मारने के बाद डेढ़ घण्टे तक अंशु दीक्षित कुछ बंदियों को बंधक बनाकर पुलिस से सौदेबाजी करता रहा। अगर दीक्षित को मरने की चिंता न होती तो वह बंदियों को बंधक बनाकर पुलिस से सौदेबाजी न करता। इसके अलावा जांच आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह पता लगाने की होगी कि आला ऐ कत्ल यानी 9 एमएम की अत्याधुनिक पिस्तौल आखिर जेल में पहुंची कैसे।चित्रकूट जेल से जो खबरें छन-छन कर बाहर आ रही हैं उसके अनुसार एक जेल वार्डन का हाल ही में बागपत जेल से चित्रकूट जेल में तबादला हुआ था। सन 2018 में जब बागपत जेल में कुख्यात मुन्ना बजरंगी की हत्या हुई उस दौरान उक्त जेल वार्डन वहीं तैनात था। असलहों को जेल के भीतर पहुंचाने में उसकी भूमिका की सीबीआई जांच कर रही है। न्यायिक जांच आयोग के दायरे में चित्रकूट जेल की सीसीटीवी भी होगी कि क्या घटना वाले दिन सीसीटीवी का खराब होना महज एक इत्तिफाक था या कुछ और। अगर सीसीटीवी खराब थी यह कब हुई और उसे ठीक कराने के क्या प्रयास हुए।
कानून की भाषा में एक शब्द है मेंसरिया। यह एक लैटिन शब्द है। हिंदी में इसका अर्थ होता है उद्देश्य या मंशा। कानून के अनुसार हर अपराध की एक मेंसरिया यानी उद्देश्य होता है। जांच आयोग इस हत्याकांड के उद्देश्यों की तह तक जाने का जरूर प्रयास करेगा। इतना तो तय है कि कातिल अंशु दीक्षित ने मेराज को मारने की पहले से ही योजना बना रखी थी। इसी योजना के तहत उसने जेल में पिस्तौल मंगवाई। अब सवाल यह है कि उसकी मेराज से क्या दुश्मनी थी या उसने किसी और के इशारे पर इस घटना को अंजाम दिया। अभी तक कि पड़ताल में सामने आया है कि उसने घटना के पहले मेराज के गले लग उसे ईद की मुबारकबाद दी फिर ठंडे दिमाग से गोलियां चलाने लगा। अगर इस सूचना पर भरोसा किया जाय तो उसकी मेराज से कोई पुरानी रंजिश नहीं थी। मेराज को उसके इरादे का जरा भी इल्म होता तो उसके नजदीक ही नहीं फटकता, गले मिलना तो दूर की बात है। न्यायिक जांच आयोग के सामने सभी कड़ियों को जोड़ने की कठिन चुनौती है। अगर न्यायाधीश इसमे सफल रहते हैं तो इस सनसनीखेज हत्याकांड से पर्दा उठने की उम्मीद की जा सकती है।