वाराणसी: भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी ललित लेखनी से हिंदी को संकरी गलियों से निकालकर प्रगति के पथ पर खड़ा किया। आधुनिक हिंदी भाषा के जनक भारतेंदु बाबू की निशानियां काशी की प्राचीन व घुमावदार गलियों में ही बसी हैं। हालत यह है कि भारतेंदु बाबू के आवास तक पहुंचने के लिए साहित्यप्रेमियों को जद्दोजहद करनी पड़ती है।
चौक से चौखंभा की ओर जाने वाले ठठेरी बाजार की गली में स्थित भारतेंदु भवन की स्थिति तो दुरुस्त है, लेकिन अतिक्रमण के कारण साहित्य प्रेमियों को उनके आवास तक जाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। ठठेरी बाजार से प्रवेश करते ही सर्राफा मंडी के बाद, पापड़, अचार की दुकानें हैं। बाजार में पार्किंग नहीं होने के कारण दुकानदार और ग्राहकों की गाड़ियां दुकानों के बाहर ही खड़ी होती हैं। हालत यह है कि उक्त स्थिति में पांच फीट की गली महज एक से डेढ़ फीट में तब्दील हो जाती है। जिसमें पैदल चलना भी मुश्किल हो जाता है। नगर निगम की कूड़ा उठाने वाली गाड़ी भी सुबह में एक बार ही आती है। वहीं, भारतेंदु हरिश्चंद्र के आवास के बाहर तारों का जाल फैला हुआ है। घर से थोड़ी दूर पर ही कूड़े का भी ढेर लगा हुआ है।
परिजनों ने सहेज रखी हैं यादें भारतेंदु भवन में भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित कई पुस्तकें देखने के लिए आज भी देश विदेश से लोग आते हैं। भारतेंदु परिवार की पांचवी पीढ़ी के दीपेश चंद्र चौधरी ने बताया कि भवन के अलावा उनसे जुड़ी कई चीजें भारत कला भवन में रखी गई हैं।
दीपेश बताते हैं कि भवन में भारतेंदु परिवार की करीब 170 साल पुरानी डोली, तामजाम, पेन होल्डर, टोपी रखने वाला स्टैंड सहित अन्य सामान संरक्षित कर रखी गई हैं। आज भी भारतेंदु परिवार में बहू को भवन में मौजूद 170 साल पुरानी डोली में बैठा कर लाने की रस्म है। इसके अलावा भवन में ब्रिटिश शासन काल के दौरान बनवाया गया कुआं भी मौजूद है।