वाराणसी(काशीवार्ता)। आनंद कानन, काशी, बनारस और अन्य नामों से पहचानी जाती रही प्राचीन धर्म नगरी को आज ही के दिन यानी 24 मई 1956 में वाराणसी नाम दिया गया। इसे जिले की पहचान से जुड़ी वरुणा व असि नदी को भी आधिकारिक रूप से दस्तावेजों में दर्ज किया गया। हालांकि इस विशिष्ट नाम का मत्स्यपुराण में भी जिक्र है। आधिकारिक रूप से इस नाम को सरकारी रूप से डॉ. संपूणार्नंद ने मान्यता दिलाई। यह जानकारी वाराणसी गजेटियर में बतौर दस्तावेज दर्ज है। सन 1965 में इलाहाबाद के सरकारी प्रेस से प्रकाशित गजेटियर में कुल 580 पन्ने हैं। सरकार द्वारा दस्तावेजों को डिजिटल करने के तहत सन 2015 में इसे आॅननलाइन किया गया। वाराणसी गजेटियर में लगभग 20 अलग-अलग विषय शामिल हैं। हालांकि बोलचाल की भाषा में अभी काशी और बनारस आज भी कहा जाता रहा है। ‘वाराणसी यानी बनारस’ एक ऐसा नाम, जिसे सुनते ही मंदिर, मस्जिद, गंगा, घाट, पान, साड़ी आदि नामों का जेहन में आना आम बात है। अल्हड़ बनारस अपनी बेफिक्री और फक्कड़पन के लिए दुनियाभर में मशहूर है। लोगों का ऐसा विश्वास है कि यहां मरने पर मोक्ष मिलता है। हमारा यकीन है कि यहां आने के बाद, आपका यहां से जाने का मन नहीं करेगा, क्योंकि लोग बनारस घूमते नहीं जीते हैं। बनारस देखना है तो घाटों पर समय बितायें और पक्के महाल जाएं। श्रीकाशी विश्वनाथ के दर पर जाकर शीश नवायें। सड़क किनारे चाय की बैठकी में शामिल हों। फूलों का व्यापार हो या साड़ियों और मोतियों का, बनारसी कला की प्रसिद्धि दूर-दूर तक है। केवल भारत नहीं, दुनिया भर में मशहूर है इस शहर का खानपान। कोई गली कचौड़ी जलेबी के लिए प्रसिद्ध है तो कोई मलाईयों के लिए। कहीं रस मलाई तो कहीं चटपटी चाट। व्यंजनों के मामले में हर गली-मोहल्ले खास हैं।