पढ़ी, पढ़ाया फिर आत्मनिर्भर भी बनाया


वाराणसी (काशीवार्ता)। सत्य वो है, जब हम किसी दूसरे के दु:ख दर्द से द्रवित होते है और उनके दु:ख को दूर करने का प्रयास करते हैं। दरअसल, ऐसा करके हम अनजाने में ही ईश्वर के कार्य में हाथ बंटा रहे होते हैं। वास्तव में देखा जाए तो इस तरह हम अपना दु:ख दूर कर रहे होते हैं।

दशकों पुरानी बात है, रोहतास (बिहार) के मूल निवासी दिनेश पाठक के घर कन्या का जन्म हुआ, जिसका नाम संतोषी रखा गया। शायद यह नाम इसलिए रखा गया कि उसे जीवन में जो मिले उसी में संतोष करना था। हालांकि संतोषी में यह संतोष था नही। उसके पिता हिन्दू सेवा सदन में वैद्य हैं। उनके पास बेटी को पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे, जिसको देखते हुए उसके मुंह बोले भाई रवि गुप्ता ने उसकी पढ़ाई का जिम्मा उठाया और उसे हाईस्कूल तक पढ़ाने के बाद उसका विवाह दीपू शुक्ला कर दिया गया। मगर यह देखिए, संतोषी के पति ने उसकी पढ़ाई जारी रखी और उसे एमए कराया। दीपू की सरस्वती फाटक पर पूजा सामग्री की दुकान थी, जो काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बनने के दौरान टूट गई।
संतोषी के पति हुकुलगंज में ‘दीक्षा फास्ट फूड कार्नर’ चलाते हैं। संतोषी ने बताया, कुछ महिलाएं अपने बच्चों के साथ आती थीं जिन्हे देखकर मेरे मन में उन्हें शिक्षित करने का ख्याल आया। फिर संतोषी ने मैने अप्रैल-2017 में दीक्षा महिला कल्याण शोध संस्थान का पंजीयन कराया। वर्ष 2018 में विद्यालय का भवन बिक जाने और उसका स्वामित्व बदल जाने से संतोषी के सामने विकट समस्या उत्पन्न हो गई। काफी प्रयास के पश्चात उसे एक भवन हुकुलगंज में मिला, तो उसने वहां अपनी संस्था का कार्यालय स्थानांतरित किया। अब उसकी संस्था का कार्य बढ़ने से लगा। लोग जुड़ने लगे और आर्थिक सहयोग भी मिलने लगा। अब संतोषी आस-पास के मलिन बस्तियों के बच्चों को भी पढ़ाने लगी। वर्तमान में लगभग 5 सौ बच्चे इस संस्था से नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। जिनके कॉपी-किताब व शिक्षकों की व्यवस्था संस्था करती है। संस्था द्वारा महिलाओं को नि:शुल्क ब्यूटीशियन, मेंहदी व सिलाई का प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर भी बनाया जाता है।इसके अलावा बुजुर्गों को नि:शुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराई जाती है। संतोषी के इन कार्यों को देखते हुए कई सामाजिक संस्थाएं उसे सम्मानित कर चुकी हैं।
सिलाई का कार्य शुरू कर समाज को कर रही शिक्षित
संतोषी ने बताया, पति के साथ एक दिन राजघाट की तरफ गयी तो देखा एक महिला सड़क के किनारे बैठी रो रही थी। पूछने पर बताया, उसके पति के आंखों की रोशनी चली गई है। इलाज के लिए पैसे नही हैं और ससुराल के लोग सहयोग नहीं कर रहे। इस सबसे ऊबकर मैं अपनी इहलीला समाप्त करने आई हूं। यह सुन संतोषी उसे घर लाई। वह महिला घरों में साफ-सफाई व चौका बर्तन करने लगी। ये कार्य संतोषी को पसंद नहीं आया। उसने सिलाई-कढ़ाई का कार्य शुरू किया जिसमें वो महिला मदद करने लगी। धीरे-धीरे कार्य बढ़ा तो जगह की कमी होने लगी। इसी दौरान पहड़िया स्थित एक विद्यालय के प्रबंधक ने अपने विद्यालय में स्थान दिया तो मैंने जरूरतमंद महिलाओं के साथ कार्य प्रारंभ किया। धीरे-धीरे काम बढ़ता गया और लगभग 80 महिलाएं संतोषी के साथ कार्य करने लगीं। सिलाई-कढ़ाई के साथ ही उसने विश्वनाथ मंदिर के प्रसाद की पैकिंग भी शुरू कर दिया।