गायक मुकेश का वह सपना जो पूरा न हो सका


मुकेश को दुनिया से बिदा हुए आज 44 बरस हो गए हैं. लेकिन उनके गीतों की दीवानगी आज भी देखते ही बनती है. मुश्किल से मुश्किल गीतों को वह इतनी सहजता और मधुरता से गा लेते थे कि उनके गीत सीधे दिलों में घर कर जाते थे.

आवारा हूँ, मेरा जूता है जापानी, जीना यहाँ मरना यहाँ, इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, कहीं दूर जब दिन ढल जाये, सजन रे झूठ मत बोलो, किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार, दोस्त दोस्त न रहा, जब कोई तुम्हारा हृदय तोड़ दे, चाँद सी महबूबा हो मेरी, क्या ख़ूब दिखती हो, चन्दन सा बदन चंचल चितवन और होठों पर सच्चाई रहती है जैसे उनके सैकड़ों गीत हमेशा सिर चढ़ कर बोलते हैं. यही कारण है कि मुकेश के गाये बहुत से गीत जितने पहले लोकप्रिय थे, उतने आज भी हैं.

हालांकि बहुत कम लोग जानते हैं कि मुकेश ने अपने 35 साल के फ़िल्म संगीत करियर में लगभग 525 हिन्दी फ़िल्मों में लगभग 900 गीत ही गाये. जो रफ़ी, किशोर कुमार और लता मंगेशकर की तुलना में बहुत ही कम हैं. लेकिन मुकेश के गाये गीतों की लोकप्रियता इतनी ज्यादा रही कि अक्सर लोग यही समझते हैं कि मुकेश ने भी हज़ारों फ़िल्म गीत गाये होंगे.

मुकेश के गीत जितने सरल, सहज और मधुर हैं उतने ही सरल और मधुर मुकेश अपनी असली ज़िंदगी में भी थे. हालांकि जब 27 अगस्त 1976 को मुकेश का निधन, अमरीका के डेट्रायट में हुआ तब वह मात्र 53 बरस के थे. अपने उस दौर में मुकेश शिखर के तीन पार्श्व गायकों में थे.

पिछले कुछ बरसों में विभिन्न म्यूज़िकल रिएलिटी शो के चलते फ़िल्म संगीत की दुनिया में गायक-गायिकाओं की बाढ़ सी आ गयी है. लेकिन मुकेश का आज भी कोई सानी नहीं है.

आज जिसे देखो रातों रात सफलता पाकर एक ‘स्टार सिंगर’ बनने का सपना देखता है. पर अब अधिकांश नए गायक यदि आंधी की तरह आते हैं तो वे तूफ़ान की तरह जल्द ही ग़ायब भी हो जाते हैं. जबकि रफ़ी, किशोर और मुकेश जैसे गायक आज भी अमर हैं.

असल में मुकेश की ज़िंदगी को ध्यान से देखें तो उन्होंने अपनी गायन प्रतिभा को निखारने के लिए बहुत परिश्रम किया.

मुकेश की एक ख़ास बात यह भी रही कि उन्होंने संगीत की बहुत ज्यादा विधिवत शिक्षा भी नहीं ली. कुछ दिग्गज गायकों को सुन सुन कर और गीत गा गा कर ही, मुकेश ने ख़ुद को संवारा, निखारा.

मुकेश को लेकर यूं बरसों से काफ़ी कुछ लिखा जाता रहा है. उनके जीवन पर कई पुस्तकें भी हैं. मुकेश ऐसे अकेले पार्श्व गायक हैं जिनके गाये सभी गीतों के संकलन पर भी लेखक हरीश रघुवंशी द्वारा रचित ‘मुकेश गीत कोश’ नाम की एक अनुपम पुस्तक है. जिसमें मुकेश के फ़िल्मी गीतों के साथ उनके ग़ैर फ़िल्मी गीतों को भी बेहद सलीके से सँजोया है.

फिर भी मुकेश के व्यक्तिगत जीवन, उनकी फ़िल्म यात्रा, उनके शौक़, सपनों और समर्पण को लेकर कुछ बातें ऐसी भी है जो पहले कभी प्रकाश में नहीं आयीं.

उनकी ऐसी बहुत सी बातों को मुकेश के छोटे भाई परमेश्वरी दास माथुर ने मुझे सन 1985 में तब बताया था, जब मैंने उनका इंटरव्यू लिया था और उसके कुछ बरस बाद तक दिल्ली में वह मेरे संपर्क में रहे. आज पी डी माथुर भी दुनिया में नहीं हैं. लेकिन अपने भाई मुकेश को लेकर बताई उनकी बहुत सी बातें आज भी भुलाए नहीं भूलतीं.

एक बात तो यह कि मुकेश शादी से पहले रोज़ रात को डायरी लिखा करते थे.लेकिन गुजराती परिवार की सरल मुकेश उर्फ़ बची बेन से 1946 में शादी होने के बाद उनका डायरी लिखना कम हो गया था.

आत्मकथा लिखना चाहते थे

मुकेश ने अपने जीवन में अपने कई सपनों को साकार होता देखा. अनिल बिस्वास, हुस्नलाल भगतराम, खेम चंद्र प्रकाश, रोशन, बुलों सी रानी, मदन मोहन, जयदेव, सी रामचन्द्र, सरदार मलिक, चित्रगुप्त, सचिन देव बर्मन, नौशाद से लेकर शंकर जयकिशन, लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल, कल्याणजी आनंदजी, ख्य्याम, रवि, उषा खन्ना, राहुल देव बर्मन, सलिल चौधरी, बप्पी लहिड़ी, राजेश रोशन और रवीन्द्र जैन तक चोटी के संगीतकारों की धुनों पर गीत गाये.

साथ ही राज कपूर, मनोज कुमार, राजेश खन्ना, शशि कपूर, जीतेंद्र, सहित दिलीप कुमार, धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन जैसे कई बड़े नायकों पर फ़िल्मांकित गीतों को अपनी आवाज़ दी. देश भर में ही नहीं दुनिया के कई देशों में अपने गीतों के शो पेश करके मुकेश ने सभी को मंत्रमुग्ध कर लिया. यहाँ तक मुकेश को अपने गीतों के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और फ़िल्मफेयर जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिले.

इस सबके बावजूद मुकेश का एक सपना अधूरा रह गया. वह सपना था अपनी आत्म कथा लिखने का. मुझे पीडी माथुर ने बताया था- “जब मैंने मुकेश जी की लिखी डायरी देखी तो मैंने उनसे पूछा कि आप डायरी क्यों लिखते हैं.”

इस पर मुकेश जी ने कहा था, “मैं अपनी ज़िंदगी की यादों को संजोना चाहता हूँ, ख़ुशियों को, दुखों को, संघर्षों को. मेरी इच्छा है कि एक दिन मैं अपनी आत्मकथा लिखूँ. लेकिन बदक़िस्मती से उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका.”

असल में जीवन की आपाधापी में मुकेश समय से पहले ही दुनिया से चले गए. वरना उनके और भी बहुत से गीत हम सभी को सुनने को मिलते और शायद उनकी आत्मकथा भी पढ़ने को मिलती.

गीत की रिकॉर्डिंग के दिन रखते थे उपवास

पीड़ी माथुर ने मुझे मुकेश को लेकर एक अहम बात यह भी बताई थी कि जिस दिन मुकेश जी के गीतों की रिकॉर्डिंग होती थी, उस दिन वह उपवास जैसा रखते थे. मुकेश भाई अपने काम के प्रति इतने समर्पित थे कि जब तक उनकी रिकॉर्डिंग नहीं हो जाती थी तब तक वह सिर्फ़ पानी और गरम दूध ही लेते थे. जिससे उनका गला बिलकुल ठीक रहे और उनके सुरों में रत्तीभर भी कमी न आए.

यूं मुकेश खाने-पीने के शौक़ीन थे. जब मैंने माथुर से पूछा-शराब के साथ उनका रुख़ दोस्ती का रहा या दुश्मनी का. क्योंकि कई बार सुनने में आया कि मुकेश जी शराब से परहेज़ रखते थे?

मेरे सवाल के जवाब में परमेश्वरी दास ने तब बताया था- “नहीं ऐसी बात नहीं है. पहले कुछ वर्षों में उन्हें ‘ड्रिंक्स’ का शौक़ था. खाने पीने से वह परहेज़ नहीं रखते थे. जब उनकी रिकॉर्डिंग हो जाती थी या जिस दिन उनकी रिकॉर्डिंग नहीं होती थी, तब वह बढ़िया खाते पीते थे. कई बार तो वह मीट वग़ैरह भी ख़ुद ही अपने हाथ से बनाते थे. लेकिन बाद में जब उन्हें दिल और मधुमेह की बीमारी हो गयी तो उन्होंने शराब कम कर दी थी.”

बहन की शादी ने खोला मुंबई का रास्ता

मुकेश का जन्म 22 जुलाई 1922 को दिल्ली में हुआ था. अपने पिता लाला जोरावर चंद माथुर और माँ चाँद रानी की दस संतानों में मुकेश चंद माथुर सातवें नंबर पर थे.

मुकेश दिल्ली से मुंबई फ़िल्मों में कैसे पहुंचे इस पर अलग अलग क़िस्म की बातें पढ़ने- सुनने को मिलती रहती हैं.

लेकिन उनके छोटे भाई पी डी माथुर ने जो बात बताई वह ज्यादा प्रमाणिक और विश्वसनीय हैं. माथुर के अनुसार-”मुकेश जी को गाने का शौक़ बचपन से था. दिल्ली के मंदिर मार्ग स्थित एम बी स्कूल (अब एन पी बॉय्ज़ सीनियर सेकेंड्री स्कूल) से उन्होंने मैट्रिक किया था. दिलचस्प बात यह है कि संगीतकार रोशन भी इन्हीं के साथ पढ़ते थे.”

रोशन ने भी फ़िल्म संगीत में अपना विशिष्ट योगदान दिया. उनके पुत्र राकेश रोशन और राजेश रोशन सहित उनके पौत्र ऋतिक रोशन भी फ़िल्मों में कई उपलब्धियां हासिल कर चुके हैं.

मुकेश स्कूल के विभिन्न समारोह में भी गाते रहते थे. तब मुकेश पंकज मलिक और के एल सैगल के गाने गाते थे.

माथुर बताते थे, ”हमारी बहन सुंदर प्यारी जी का विवाह था. इन बहन के ससुर के चचेरे भाई के नाते फ़िल्म अभिनेता मोती लाल भी बारात में आए थे. मोतीलाल अपने दोस्त फ़िल्म निर्माता और अभिनेता तारा हरीश को भी साथ लाये थे.”

”हमारे यहाँ उस समय फेरों में बहुत समय लगता था. इसलिए इस बीच बारातियों का मनोरंजन करने के लिए भाई मुकेश को खड़ा कर दिया गया. उनके गाने सुन मोती लाल और तारा हरीश बहुत प्रभावित हुए.”

”इस दौरान मुकेश जी मैट्रिक करके दिल्ली में ही सीपीडब्लूडी में सर्वेयर की नौकरी करने लगे. लेकिन अभी सात-आठ महीने बीते थे कि मोती लाल का तार आ गया कि मुंबई आ जाओ.”

”मुकेश वह तार देख बहुत ख़ुश हुए. लेकिन पिताजी को यह सब पसंद नहीं था. लेकिन मुकेश जी ने ज़िद करके जैसे तैसे पिता को मना लिया.और नौकरी छोड़कर अक्तूबर 1939 में वह मुंबई चले गए. लेकिन लंबे संघर्ष के बाद ही उनके गायन को सफलता मिली.”

यहाँ यह भी बता दें कि संगीतकार खेमचंद्र प्रकाश के चचेरे भाई जगन्नाथ प्रसाद से मुकेश ने शास्त्रीय संगीत सीखा था. इनके अलावा वह किसी के शागिर्द नहीं रहे. पर अब्दुल करीम खाँ और बड़े ग़ुलाम अली खाँ की चीज़ें बहुत सुनते थे और इनका बहुत सम्मान करते थे. इनके अलावा मुकेश अनिल बिस्वास, के एल सैगल और रोशन का भी बहुत सम्मान करते थे.

मुकेश का पहला गीत जो सबसे पहले सुर्खियों में आया वह फ़िल्म ‘पहली नज़र’ से था. हालांकि इससे पहले भी मुकेश कुछ फ़िल्मों में गीत गाने के साथ फ़िल्मों में अभिनय भी कर चुके थे.

सन 1945 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘पहली नज़र’ में अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में मुकेश का गाया गीत ‘दिल जलता है तो जलने दो’ जब रेडियो पर बजा तो सभी को लगा कि यह के एल सैगल ने गाया होगा. क्योंकि उस गीत का अंदाज़ सैगल जैसा ही था और मुकेश यूं भी सैगल से काफ़ी प्रभावित थे.

मुकेश इसके बाद चल निकले और फिर जल्द ही वह सैगल की छाया से निकल कर अपने उन सुरों और अंदाज़ में आ गए, जिससे अभी तक दुनिया अभिभूत है. मुकेश को सर्वाधिक लोकप्रियता तब मिली जब उन्होंने राज कपूर के लिए विशेषकर राज कपूर द्वारा निर्मित फ़िल्मों के लिए गाना शुरू किया.

आर के स्टूडियो की 1949 में आई ‘बरसात’ में मुकेश के ‘छोड़ गए बालम’ और ‘पतली कमर है’ जैसे गीतों के बाद मुकेश की लोकप्रियता सात समंदर पार तक तब पहुंची, जब सन 1951 में आर के की ‘आवारा’ फ़िल्म रिलीज़ हुई.

‘आवारा’ में शैलेंद्र के लिखे और शंकर जयकिशन के संगीतबद्ध किए ‘आवारा हूँ’ गीत को जब मुकेश ने अपने स्वर दिये तो इस गीत ने लोकप्रियता का नया इतिहास लिख दिया. रूस में तो यह गीत आज 70 साल बाद भी बेहद लोकप्रिय है.

इसके बाद तो मुकेश ‘श्री 420’ से ‘मेरा नाम जोकर’ और ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ तक राज कपूर की फ़िल्मों का लगातार हिस्सा बने रहे. मुकेश का अंतिम गीत ‘चंचल,शीतल, निर्मल, कोमल’ भी आर के की फ़िल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ का है.

तभी मुकेश को राज कपूर अपनी आवाज़ ही नहीं अपनी आत्मा तक कहते थे. राज कपूर को जब मुकेश के निधन का समाचार मिला तो वह ग़मगीन हो गए और उन्होंने रुँधे गले से कहा था-मेरी तो आवाज़ ही चली गयी.

आर के की फ़िल्मों के लिए नहीं मिला पुरस्कार

इधर यह बात भी हैरान करती है कि मुकेश के गीतों को सबसे ज्यादा लोकप्रियता जहां आर के स्टूडियो की फ़िल्मों से ही मिली. लेकिन उन्हें राज कपूर द्वारा निर्मित किसी भी फ़िल्म के गीतों के लिए कोई भी बड़ा पुरस्कार नहीं मिला.

हालांकि यह गनीमत है कि मुकेश को मिले चार फ़िल्मफेयर पुरस्कारों में पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जिस ‘अनाड़ी’ फ़िल्म के लिए मिला उसके नायक राज कपूर ही थे और जिस गीत ‘सब कुछ सीखा हमने’ के लिए यह पुरस्कार मिला, वह राज कपूर पर ही फ़िल्माया गया था.

मुकेश को सर्वश्रेष्ठ गायक के लिए जो तीन और फ़िल्मफ़ेयर मिले उनमें दो फ़िल्में मनोज कुमार अभिनीत हैं. एक फ़िल्म ‘पहचान’ (1970) जिसके गीत ‘सबसे बड़ा नादान वही है’ और दूसरी फ़िल्म ‘बेईमान’ (1972) है, जिसके गीत ‘जय बोलो बेईमान की’ के लिए मुकेश को यह सम्मान मिला.

यहाँ यह भी दिलचस्प है ‘अनाड़ी’ के संगीतकार भी शंकर जयकिशन थे तो ‘पहचान’ और ‘बेईमान’ के भी. यानि मुकेश के चार फ़िल्मफ़ेयर में से तीन शंकर जयकिशन के संगीत में ही थे. उधर ‘सबसे बड़ा नादान’ और जय बोलो बेईमान की’ जैसे दोनों गीतों के गीतकार भी वर्मा मलिक थे.

उधर यह भी कि ‘सबसे बड़ा नादान वही’ इतना लोकप्रिय हुआ था कि मुकेश के साथ वर्मा मलिक को सर्वश्रेष्ठ गीतकार और शंकर जयकिशन को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का भी फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिल गया.

मुकेश को फ़िल्म ‘कभी कभी’ के शीर्षक गीत ‘कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है’ के लिए भी फ़िल्मफ़ेयर मिला था.जिसका संगीत ख़य्याम ने दिया था और इसे अमिताभ बच्चन पर फ़िल्मांकित किया गया था.

राज कपूर के बाद मुकेश के गीत जिस अभिनेता पर सबसे ज्यादा जमे और पसंद किए गए वह मनोज कुमार ही हैं. जिनकी लगभग 20 फ़िल्मों में मुकेश ने अपने स्वर दिये. जिनमें हरियाली और रास्ता, हिमालय की गोद में, पत्थर के सनम, उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान, संन्यासी, और दस नंबरी जैसी फ़िल्में तो शामिल हैं हीं.

मुकेश को फ़िल्मफ़ेयर के अलावा सन 1974 में सर्वश्रेष्ठ गायक का वह राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी मिला, जिसको पाना बड़े से बड़े कलाकार का सपना रहता है. जिस गीत के लिए यह राष्ट्रीय पुरस्कार मिला वह गीत है फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ का, ‘कई बार यूं ही देखा है, यह जो मन की सीमा रेखा है’.

योगेश के लिखे इस शानदार गीत की धुनें भी सलिल चौधरी ने एक दम मन को छू लेने वाली बनाई थीं.

बेहद शरीफ़ इंसान थे मुकेश

मुकेश ने अपने करियर में सबसे ज्यादा फ़िल्में संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के साथ की थीं. मुकेश को लेकर मैंने अभी संगीतकार आनंदजी से बात की तो वह बोले- “हमारे साथ मुकेश ने कुल 103 गीत गाये और हमारे हमेशा उनके साथ मधुर संबंध रहे.वह बेहद शरीफ इंसान थे.”

आनंदजी एक क़िस्सा बताते हैं-” एक बार मुकेश कहीं बाहर गए हुए थे. उसी दौरान फिल्म ‘विश्वास’ की रिकॉर्डिंग करनी पड़ी. इस फ़िल्म के लिए ‘चांदी की दीवार न तोड़ी’ जैसे कुछ दिलकश गीत मुकेश पहले ही रिकॉर्ड करा चुके थे. लेकिन एक गीत ‘आपसे हमको बिछड़े हुए एक जमाना बीत गया’ अभी रिकॉर्ड होना था.

तब फ़ैसला किया गया कि अभी इस गीत को मनहर उधास की आवाज़ में रिकॉर्ड करा लिया जाये. बाद में जब मुकेश आएंगे तो मनहर की जगह उनके ही स्वर में रिकॉर्ड कर लेंगे. मनहार और सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में यह गीत स्वरबद्ध कर लिया गया.

जब मुकेश मुंबई वापस आए तो उनको कहा गया कि अब वह इस गीत को रिकॉर्ड करा दें. लेकिन जब मुकेश ने वह गीत सुना तो गीत सुनकर बोले- क्या कमी है इस गीत में, मनहर ने इसे इतना अच्छा गाया है तो उस बेचारे को हटाकर मुझसे क्यों गवा रहे हो.”

इसके बाद वह गीत मनहर के स्वर में ही रहा. आनंदजी बोले -मुकेश की यह बात सभी को हैरान करने वाली थी. कोई और होता तो ऐसा कभी नहीं कहता. यही बात बताती है कि मुकेश जितने अच्छे गायक थे उतने अच्छे इंसान भी थे.

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