पेशे से डायमंड वर्कर, गुजरात में सूरत के निवासी, अल्पेश सावलिया के ऊपर सात लोगों के परिवार को चलाने की भी ज़िम्मेदारी है. हीरे के आभूषणों को तराशकर निखारना उनकी महारत है लेकिन कोरोना संक्रमण के चलते घोषित लॉकडाउन के दौरान अल्पेश तीन महीने बिना तनख़्वाह के रहे.
फ़ैक्ट्री में काम भी बंद पड़ा हुआ था और जब से शुरू हुआ है तब से नौकरी आधी तनख़्वाह पर ही चल रही है. अल्पेश को लगता है कि अब उनके पास दूसरा काम करने का विकल्प भी नहीं है.
उन्होंने बताया, “गाँव में खेती करते थे. उसमें बारिश-बाढ़ की दिक्कत रहती थी इसलिए गाँव छोड़ के शहर आए. अब यहाँ से कहाँ जाएँगे? इस समय कौन सा दूसरा काम करेंगे? हमारे पेशे की दिक्कत है कि विदेश से हीरे का आयात नही हो पा रहा है. व्यापारियों के पास रफ़ माल भी बहुत कम है”.
भारत में कोरोना वायरस ने अपनी गिरफ़्त में न सिर्फ़ लघु और मध्यम वर्गीय कारोबारों को लिया बल्कि हीरे और जवाहरात जैसे व्यापारों को भी गहरी चोट पहुँचाई है.
हीरों को तराशने और पॉलिश करने में भारत का दुनिया में पहला स्थान है और लॉकडाउन की घोषणा के समय तक देश में क़रीब 45 लाख लोगों का रोज़गार इससे जुड़ा है.
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ दुनिया में बिकने वाले 75% हीरों की पॉलिश भारत में ही होती है जिसके बाद ये हॉन्गकॉन्ग, ऐँटवर्प और अमरीका जैसे बाज़ारों में निर्यात किए जाते हैं.
बरसों के बाद हीरों के बाज़ार में ऐसी मंदी
वर्षों से इन बाज़ारों में काम करने वालों ने ऐसी मंदी पहली बार देखी है.
गुजरात के ही रहने वाले मयूर गबानी क़रीब सात साल पहले हॉन्गकॉन्ग के डायमंड बाज़ार में नौकरी करने गए थे और चंद सालों में इन्होंने वहीं पर अपना कारोबार शुरू कर दिया.
बीबीसी हिंदी को दिए एक ऑनलाइन वीडियो इंटरव्यू में मयूर ने माना कि कोविड-19 के बाद के दौर दुनिया भर की डायमंड इंडस्ट्री को वर्षों पीछे धकेल दिया है.अपने परिवार के साथ मयूर गबानी
उन्होंने कहा, “ट्रैवलिंग पर बैन है और भारत से ज़्यादातर हीरे हॉन्गकॉन्ग से आते हैं. पिछले पाँच महीने से तो अभी यहाँ सिर्फ़ हॉन्गकॉन्ग के मूल निवासी ही अलाउड हैं. यहाँ टूरिज़म भी बंद है. जो ग्राहक चीन, टायवान, कोरिया और वियतनाम से हीरे की ख़रीदारी के लिए आते हैं, वे आ नहीं पा रहे”.
भारत की डायमंड इंडस्ट्री पर कोरोना वायरस के विपरीत असर का सीधा प्रभाव दुनिया के बड़े डायमंड बाज़ारों और नामचीन कम्पनियों पर पड़ता है.
चूंकि हीरों की सफ़ाई, कटाई और पॉलिश का सबसे बड़ा केंद्र भारत है इसलिए जिन देशों में कोरोना के बाद हुए लॉकडाउन से ढील भी मिल चुकी है वहाँ भी हीरो की ख़रीद-फ़रोख़्त ने ज़ोर नहीं पकड़ा है.
शायद यही वजह है कि डी बियर्स और अलरोसा जैसे नामी-गिरामी कम्पनियों ने हीरों के दामों में 10% तक की छूट देने पर विचार करना शुरू कर दिया है.
हर अर्थव्यवस्था की तरह भारत भी कोविड-19 की मार सह रहा है.कारोबार पर भी असर गहरा है और लॉकडाउन के दौरान और बाद में न जश्न वाली शादियाँ हो रहीं हैं, न ही त्योहारों की धूम दिखी है.भारत में हीरे का कारोबार
कोरोना संकट के दौरान लाखों लोगों की नौकरियाँ जाने और लाखों की तनख़्वाहों में कटौती होने की वजह से कंज़्यूमर सेंटिमेंट (ख़रीद-फ़रोख़्त को लेकर उपभोक्ताओं के फ़ैसलों) में भी ज़बरदस्त गिरावट दिखी है और आम लोग का रुझान बचत की ओर झुका है.
हालाँकि भारत में डायमंड कारोबार की नीतियों से जुड़े लोगों को उम्मीद भी है.
भारत की रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (GJEPC) की गुजरात इकाई के छेत्रीय निदेशक दिनेश नवादिया के मुताबिक़, “आज किसी की डिमांड है तो हम माल भी नहीं भेज सकते. मैं बिल्कुल मानता हूँ कि नुक़सान हुआ है, लेकिन पूरी दुनिया के अंदर ये स्थिति थी. एक बिज़नेस लॉस में हम इसे गिन सकते हैं. आज की तारीख़ में लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद धीरे-धीरे मार्केट शुरू भी हो रहा है और एक्सपोर्ट भी बढ़ रहा है”.
हीरों पर भारत की नज़र
बात अगर हीरे से जुड़े व्यापार के हिस्सों की हों तो पिछले कुछ दशकों में भारत इसका सबसे बड़ा केंद्र बैन कर उभरा है. भारत सरकार की पहल पर गठित किए गए फ़ेडरेशन आफ़ इंडियन एक्सपोर्ट ओर्गनाइज़ेशन (FIEO) के अध्यक्ष शरद कुमार सराफ़ ने इस वर्चस्व की वजह बताई.
उन्होंने कहा, “हीरों के मामले में भारतीय मैनपावर स्किल दुनिया में सबसे बेहतरीन कहा जाता है. साथ ही भारत के डायमंड उद्योग से जुड़े लाखों कारीगरों के मेहनताने दुनिया में सबसे कम हैं जिसका सीधा असर किसी भी प्रॉडक्ट के दाम पर पड़ता है. तीसरी बात है बिज़नेस करने के दौरान भारतीय डायमंड ट्रेडर्स की रिस्क लेने की क्षमता बहुत अधिक है और वैश्विक व्यापारों में उनके माल की साख बन चुकी है.”
अब चूंकि दुनिया भर में हीरों के सालाना व्यापार अरबों रुपयों का होता है इसलिए बहुत से दूसरे देश भी हैं जो अपने मौजूदा उद्योगों की श्रेणी में इसे शामिल करना चाहते हैं.
इस बीच अमरीका सिन्थेटिक ड़ायमंडस उद्योग का एक बड़ा केंद्र बनकर उभरा था जिसे अब चीन से बड़ी चुनौती मिल रही है. ज़ाहिर है अपनी आबादी और हीरों की बढ़ती खपत के चलते चेने इस समय दुनिया में हीरों का सबसे बड़ा उपभोक्ता बताया जाता है.
सवाल उठना लाज़मी है कि कोरोना संकट के दौरान मंदे पड़े कारोबार और हॉन्गकॉन्ग जैसे हीरे के बड़े केंद्र बग़ल में होने के बाद क्या अब चीन भारतीय डायमंड कारोबार में भी ज़्यादा दिलचस्पी दिखा सकता है.
हॉन्गकॉन्ग स्थित डायमंड व्यापारी मयूर गबानी इस बात से इनकार करते हुए कहते हैं कि, “भारत से कटिंग और पॉलिश होकर आने वाले हीरों पर भरोसा न सिर्फ़ कारोबारियों को है बल्कि पूर्वी-एशिया और यूरोपीय ख़रीददारों को भी उतना ही भरोसा है.”
हालाँकि ये भी सच है कि महीनों चली मंडी के बाद अगर डायमंड ट्रेड ने थोड़ी तेज़ी पकड़ी है तो उसमें चीन और विदेशों की भूमिका भारत से कहीं ज़्यादा रही है.
शरद कुमार सराफ़ का कहना है कि, “इसराइल, थाईलैंड और ऐंटवर्प जैसे सेंटर्स ज़रूर सोचेंगे कि ये एक मौक़ा हो सकता है हीरे के कारोबार में अपने-अपने प्रतिशत बढ़ाने का. चीन को लेकर मैं आश्वस्त हूँ कि वे ऐसा नहीं सोच रहा होगा क्योंकि वहाँ वही चीज़ बेहतर और सस्ती बनती है जिसका मास प्रोडक्शन हो सके. डायमंड उस श्रेणी में आते ही नहीं”.
कारोबारी लफ़्ज़ों में हीरों की गिनती लक्ज़री आइटम में होती रही है. लेकिन भारत के डायमंड उद्योग से बन कर निकालने वाले इस लक्ज़री आइटम से ही जुड़ी हुईं हैं लाखों जिंदगियाँ जिनके लिए कोरोना एक महामारी से कहीं ज़्यादा साबित हुआ है.
रहा सवाल चीज़ों के बेहतर होने का तो शरद कुमार सराफ़ के अनुसार, “कह सकते हैं कि मार्च 2021 तक डायमंड आयात-निर्यात की स्थिति वैसी हो सकेगी जैसी कोरोना आने के पहले थी.”