नई दिल्ली । क्लाइमेट चेंज की बदौलत पूरी दुनिया में तापमान तेजी से बढ़ रहा है। इसका सीधा असर वैश्विक जैव संपदा पर भी पड़ा है। वर्ल्ड वाइड फंड की रिपोर्ट के मुताबिक बीते पांच दशकों में ये करीब 68 फीसद तक खत्म हो चुकी है। इसके अलावा दुनिया के कई देशों में पानी का संकट मुंह फाड़े खड़ा है। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है। इसका असर हर जगह दिखाई दे रहा है। इसकी वजह से एशियाई और अफ्रीकी देशों से कई लोग यूरोप समेत दूसरे देशों में पलायन करते हैं। लेकिन, वक्त बदलने के साथ अब वहां के लोगों की सोच इनके प्रति बदलने लगी है। वहां पर इन लोगों को क्लाइमेट रिफ्यूजी कहा जाने लगा है।
इसका अर्थ ये है कि जहां से ये लोग आए हैं वहां पर मौसमी बदलाव समेत अन्य कारणों की वजह से वहां की प्राकृतिक संपदा खत्म हो रही है, जिसकी वजह से वहां पर परेशानियां बढ़ गई हैं। यही वजह अधिकतर लोगों के पलायन की वजह बनती है। जल पुरुष डॉक्टर राजेंद्र सिंह मानते हैं कि आने वाले कुछ वर्षों के बाद पानी की समस्या लगभग पूरी दुनिया में ही विकराल रूप लेने वाली है। अफ्रीका और एशिया में ये कहीं ज्यादा अधिक हो सकती है। इसकी वजह से इनमें तनाव भी उभरकर सामने आ सकता है। उनके मुताबिक पलायन की वजह से यूरोप के परिदृश्य में बदलाव आ रहा है और दबाव बढ़ रहा है।
प्रवासियों को लेकर इसी वर्ष जारी हुई संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी इसी तरफ इशारा कर रही है। आपको बता दें कि दो दिन पहले ही वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की रिपोर्ट भी जारी हुई है, जिसमें कहा गया है कि बीते पांच दशकों में भारत समेत पूरे एशिया में जैव विविधता को काफी नुकसान पहुंचा है। इस रिपोर्ट और डॉक्टर राजेंद्र सिंह के कथन की ही पुष्टि यूएन की रिपोर्ट भी करती है। क्लाइमेट रिफ्यूजी की जो बात राजेंद्र सिंह ने कही है उस बाबत यदि यूएन की वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2020 की तरफ ध्यान दें तो पता चलता है कि पूरे एशिया से भारतीय और चीनी नागरिक सबसे अधिक अमेरिका में पलायन करते हैं।
इस लिस्ट में यदि दूसरे देशों की बात करें तो सबसे अधिक सीरियाई लोग हैं जो तुर्की की तरफ और संयुक्त अरब अमीरात की तरफ का रुख करने वालों में सबसे अधिक भारतीय शामिल हैं। इसके अलावा भारत में सबसे अधिक पलायन करके आने वालों में बांग्लादेशी नागरिक है। यूएन की इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019 में उत्तरी अमेरिका में करीब 1.70 करोड़ लोग एशियाई मूल के थे जो वर्ष 2015 के मुकाबले करीब दस लाख अधिक हैं। वहीं यूरोप की ही बात करें तो 2019 में ये संख्या करीब 2.2 करोड़ तक जा पहुंची है। इन दोनों क्षेत्रों में वर्ष 2015 के मुकाबले एशियाई लोगों की संख्या करीब 11 फीसद तक बढ़ी है।
अफ्रीकी देशों की बात करें तो यहां पर यूरोपीय देश फ्रांस की तरफ रुख करने वालों में सबसे अधिक अल्जीरियाई नागरिक हैं। ये फ्रांस की तरफ अफ्रीकी देशों का सबसे बड़ा कॉरिडोर है। इसके बाद इसमें युगांडा और ट्यूनेशिया का नाम शामिल है। इटली और स्पेन की तरफ जाने वालों में मोरक्को के नागरिक अधिक हैं। यूएन की ये रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2015-2019 के बीच यूरोप में गैर यूरोपीय नागरिकों की संख्या 3.50 करोड़ से बढ़कर 3.80 करोड़ तक हो चुकी है। ये रिपोर्ट ये भी बताती है कि वर्ष 2019 में यूरोप में इंटरनेशनल माइग्रेंट्स की संख्या 8.20 करोड़ थी जबकि वर्ष 2015 में ये साढ़े सात करोड़ थी। इस दौरान इसमें करीब 11 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है।