जब भी कोई बहस झगड़े में तब्दील होने लगती है तो गालियों की बौछार भी शुरू हो जाती है. ये बहस या झगड़ा दो मर्दों के बीच भी हो रहा हो तब भी गालियां महिलाओं पर आधारित होती हैं. कुल मिलाकर गालियों के केन्द्र में महिलाएं होती हैं.
ऐसी गालियों को लोगों के शब्दकोष से हटाने के मक़सद से दो युवतियों ने ‘द गाली प्रोजेक्ट’ शुरू किया ताकि लोगों को गालियों के अन्य विकल्प दिए जा सकें.
इस प्रोजेक्ट से जुड़ी मुंबई की नेहा ठाकुर कहती हैं कि हम देख रहे हैं कि ओवर द टॉप (ओटीटी )प्लेटफॉर्म या ऑनलाइन पर जो सीरीज़ आ रही है उनमें से ज्यादातर में भाषा बद से बदतर होती जा रही है. जब हम युवाओं या लोगों में गाली के इस्तेमाल पर प्रतिक्रिया भी माँगते थे वो कहते थे कि इसमें आपत्ति क्या है, ”इट्स फ़ॉर फ़न”.
नेहा के अनुसार, ”आजकल के माहौल में वैसे ग़ुस्सा और गाली देने के ट्रिगर कई सारे हैं जैसे सरकार से नाराज़गी, आने-जाने में परेशानी, नौकरी, रिलेशनशिप. लोगों में चिड़चिड़ाहट और खीज इतनी है कि गालियां लोगों के मुंह से स्वाभाविक तौर पर निकल रही हैं. तो गाली प्रोजेक्ट लाने का हमारा मक़सद ये है कि ग़ुस्सा निकालने के लिए जो गालियां लोग दे रहे हैं उसमें थोड़ी जागरूकता लाएं. दो मर्दों के बीच में हो रही लड़ाई में महिला पर गाली, जातिगत भेदभाव या समुदाय विशेष पर दी जाने वाली गाली के इस्तेमाल के बजाए ऐसी गालियों का वे इस्तेमाल करें जिससे सामने वाले को भी बुरा न लगे और आपका काम भी हो जाए. हमारी कोशिश गालियों का ऐसा कोष बनाना है जो महिला विरोधी न हो, जाति या समुदाय के लिए भेदभावपूर्ण, अपमानजनक या छोटा दिखाने के मक़सद से न हो.”
इस प्रोजेक्ट के बारे में आगे बताते हुए कम्युनिकेशन कंसल्टेंट तमन्ना मिश्रा कहती हैं कि हम लोगों को गालियां देने से रोक नहीं रहे हैं. हम उन्हें ऐसे शब्दों का विकल्प दे रहे हैं जिसमें आप अपनी बात भी कह दें और वो मज़ेदार या फ़नी भी हो.
गालियों का संग्रह
वे बताती हैं, ”इस प्रोजेक्ट को शुरू करने के लिए हमने पहले एक गूगल फॉर्म बनाया और अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और लोगों से कहा कि इस फ़ॉर्म में वे उन गालियों को लिखते चले जाएं जो उन्हें पसंद हों लेकिन ये गालियां महिलाओं, जाति या समुदाय को निशाना बनाने वाली नहीं होनी चाहिए. हमें क़रीब 800 शब्द मिले जिसमें 40 फ़ीसद ऐसे थे जो जातिगत या लिंग भेदभाव को ही दर्शाते थे, महिला विरोधी थे लेकिन क़रीब 500 ऐसे शब्द या गालियां थीं जिन्हें साफ़ सुथरा या क्लीन कहा जा सकता है.”
इस सूची में इकठ्ठा हुए शब्दों के अर्थ को समझने के लिए नेहा और तमन्ना ने पहले उन राज्यों में रहने वाले दोस्तों और जानकारों से बात की. शब्दों की जांच, परख और अर्थ समझने के बाद उन्होंने इन शब्दों को सोशल मीडिया पर डालना शुरू किया. उनके अनुसार ज्यादातर लोगों की प्रतिक्रिया अच्छी थी लेकिन कुछ का कहना था कि ऐसी क्लीन गाली देकर उन्हें गाली देने की फ़ील नहीं आती है.
जब औरतें मां-बहन की गालियां देती हैं
तमन्ना मिश्रा का कहना है कि हम सोशल प्लेटफॉर्म जैसे इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक पर ऐसे शब्दों की मीम डालते हैं ताकि लोग उन्हें देखें. हम गाली के शब्दों को बदलकर, लोगों की सोच बदलना चाह रहे हैं. हालांकि ये प्रक्रिया बहुत धीमी होगी लेकिन हम ये जानते हैं कि हर बार कड़ाई से बदलाव लाया जाए ऐसा ज़रूरी नहीं है. कुछ बदलाव मज़े में भी हो सकते हैं और यही हमारी कोशिश है. जैसे कुछ शब्द हमें फ़नी या मज़ाक़िया लगे तो हमने सोशल मीडिया पर डाल दिए ताकि लोगों की आदतें मज़े लेते-लेते बदल जाए.
तमन्ना और नेहा अपने तरीक़े से लोगों की गाली देने की मानसिकता में बदलाव लाने की कोशिश कर रही हैं हालांकि वे अभी काफ़ी शुरुआती पड़ाव पर हैं. वे भविष्य में किताब की शक्ल में इन गालियों का संग्रह बनाना चाहती हैं लेकिन गालियां देने की अपसंस्कृति और उसमें महिलाओं को नीचा दिखाने की प्रवृति का उद्भव कहां से हुआ होगा ये एक सवाल है?
जानकार मानते हैं गालियां देने का चलन भाषा बनने के बाद ही शुरू हुआ होगा.
हिंदी और मैथिली साहित्य की लेखिका पद्मश्री सम्मान प्राप्त उषा किरन खान कहतीं हैं कि ये कहना मुश्किल है कि गालियों की शुरुआत कब से हुई होगी लेकिन वे मानती हैं कि समाजिकता के विकास के बाद ही अच्छे और बुरे की समझ बनी होगी और गालियों की भी शुरुआत हुई होगी क्योंकि गालियां एक तरह से क्रोध या ग़ुस्सा ज़ाहिर करने का तरीक़ा है.
‘कोई मुझे देवी समझता है कोई वेश्या’
लोकगीतों में गालियां
हालांकि लोक गीतों में गालियों का इस्तेमाल होता है. वहां संबंधी को, दुल्हे की बुआ को गालियां हंसी ठिठोली और सौहार्द बढ़ाने के लिए दी जाती हैं लेकिन वहां किसी को नीचा दिखाना नहीं होता बल्कि एक तरह से सामाजिक और पारिवारिक सौहार्द्र को बढ़ाने के लिए गालियों का इस्तेमाल होता है.
पद्मश्री डॉ शांति जैन संस्कृत की प्रोफ़ेसर रह चुकीं हैं. डॉ जैन, लेखिका उषा किरन की बातों को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि शादी के बाद जेवनार गाया जाता है जिसमें गालियां देने की परंपरा रही है .
वे बताती हैं, ”तुलसी की मूल रामायण में क्षेपक दिए गए हैं. जब राम का विवाह होता है तो सीता की भावज बहुत प्रेम से उनसे मज़ाक़ करती हैं और गालियां भी देती हैं. ये चौपाई है जो मैंने पढ़ी भी है हालांकि उसके परिष्कृत रूप में आप उसे नहीं देखेंगे. वहीं लोकसाहित्य भी काफ़ी पुराना है. लोग झगड़ा करते थे तो गालियां भी देते ही थे. लेकिन जब कोध्र में गालियां दी जाती थीं तो उसका अलग ही प्रभाव होता है.”
गालियों के इस्तेमाल पर लेखिका उषा किरन खान कहती हैं कि पहले साहित्य में गालियां नहीं थीं. वे परिष्कृत हुआ करती थीं जैसे संस्कृत, पाली, प्राकृत और दक्षिण की भाषाएं जो संस्कृत से ही निकली हैं, वे लोकजीवन की भाषाएं थीं. उसमें लिखित में गालियां नहीं दिखतीं. संस्कृत में गालियां नहीं हैं बस दुष्ट और कृपण जैसे शब्द दिखाई देते हैं जो उस समय के लिए बहुत बड़ी गाली हो जाती है. लेकिन 1000 साल से जब बाहर से लोग आने लगे और आना-जाना बढ़ने लगा तब गालियां विकसित हुई होंगी.डॉ उषा किरन ख़ान
लेकिन गालियों की इस अपसंस्कृति में महिलाओं का नाम क्यों जोड़ा जाने लगा?
इसके जवाब में वे कहती हैं, ”वैदिक काल में महिला और पुरुष बराबर थे. लेकिन फिर स्त्रियों की महत्ता घटने लगी और पुरुषों का वर्चस्व बढ़ने लगा और महिलाओं की सुरक्षा का दायित्व उनपर बढ़ने लगा. धीरे-धीरे स्त्रियां ऐसे दायरे में आ गईं जहां वे पुरुषों के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन गईं. ये भी देखा जाने लगा कि राजा अपनी बेटियों को ताखे पर रख देते थे ताकि वो गिर कर मर जाएं. न रहेगी बेटी, न जाएंगे किसी के आगे हाथ फैलाने और न ही उन्हें कोई बेटी की गाली देगा. वहीं ये भी देखा गया कि युद्ध में कोई हार जाता था तो वो अपनी बेटियों को दे देता था और ऐसा समय ही गालियों की जड़ बन गया.”
उनके अनुसार स्त्री सुरक्षा बड़ी बात हो गई और स्त्री पुरुषों की संपत्ति होती चली गई और उस संपत्ति को गाली दी जाने लगी. ये गाली देकर मर्द अपने अहंकार की तुष्टि करते हैं और दूसरे को नीचा दिखाते हैं. इसी तरह से चलन होने लगा कि आधुनिक काल के आते-आते वो चलन बढ़ने लगा.
समाजशास्त्री और प्रोफ़ेसर बदरी नारायण भी मानते हैं कि पहले के समाज या आदिवासी समाज में महिलाएं प्रतिष्ठित मानी जाती थीं लेकिन फिर महिलाएं इज़्ज़त के प्रतीक के तौर पर देखी जाने लगीं. इज़्ज़त को बचाना है तो उसे देहड़ी के अंदर रखिए. महिलाएं समाज में कमज़ोर मानी जाने लगीं. आप किसी को नीचा दिखाना चाहते हैं, तंग करना चाहते हैं तो उनके घर की महिलाओं- मां, बहन या बेटी को गालियां देना शुरू कर दीजिए और वे गालियों का टारगेट बनने लगीं क्योंकि किसी व्यक्ति को नीचा दिखाने के लिए लैंगिक हमला करेंगे जैसे मां, बहन, बेटी की गाली देंगे तो वो बड़ा हमला होगा.
महिलाएं दोयम दर्जे पर
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉ शांति जैन कहती हैं कि नारीशक्ति की बात तो होती है लेकिन अभी भी महिलाएं दोयम दर्जे पर हैं. पढ़ी लिखी महिलाएं भी प्रताड़ित हो रही हैं. अगर आपको किसी को अपमानित करना है तो आप उसके घर की महिला को गाली दे देते हैं. उसका चरम अपमान हो जाता है. और वो मर्दों के अहंकार को भी संतुष्ठ करता है. किसी पुरुष से बदला लेना होगा तो बोलेंगे स्त्री को उठा लेंगे, महिला अपमानित करने का माध्यम बन जाती है. गांव में तो बहुत होता था पहले अमूमन ये देखा गया था कि ये गालियां समाज के निचले पायदान पर रहने वाले लोग ही देते थे लेकिन अब आम पढ़े लिखे लोग भी देने लगे हैं.
प्रोफ़ेसर बदरी नारायण इसे सोशल सेंसरिंग से जोड़ कर देखते हैं. उनका कहना है कि पहले लोग परिवार का लिहाज़ करते थे. दादा, पिता या घर के बड़े बुज़ुर्ग के सामने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते थे. ये डर रहता था कि बोलते हुए कोई सुन न ले लेकिन अब वो सोशल सेंसरिग ख़त्म होती जा रही है. सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर लोग एक दूसरे के साथ खुलेआम गाली-गलौच पर उतर आते हैं जहां उन गालियों को लाइक भी किया जाता है. ये हमारे समाज में अनुकूलित है और किसी को उसमें कोई बुराई नज़र नहीं आ रही है और आप उसी मानसिकता में जी रहे हैं.
उदाहरण के तौर पर पाली में बुद्दू शब्द है. इस शब्द में आप देखेंगे कि सेंस ऑफ़ ह्यूमर और गाली में पतली लकीर थी. यहां आपने अपनी बात रख कर सामने वाले को छेड़ भी दिया और आलोचना या गाली भी दे दी लेकिन बाद में ये गालियां हिंसक होने लगीं.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी साहित्य की एसिसटेंट प्रोफ़ेसर नीरा एक दूसरा नज़रिया पेश करती हैं.
वे कहती है कि अगर ग़ौर से देखा जाए तो गालियों में जैसा स्त्रियों का संदर्भ दिया जाता है वैसी पुरुष के लिए कोई गाली नहीं मिलती. और ये अब की बात नहीं है इतिहास में भी ऐसा ज़िक्र नहीं मिलता. समाज में जैसे वर्गीकरण किया गया उसमें सबसे नीचे जो आता है उसके लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. लोकसाहित्य में ऐसे कई मुहावरे हैं जहां स्त्रियों, विशेष जाति या रंग के आधार पर नकारीत्मक टिप्पणियां की जाती रही हैं. वहीं महिलाओं के लिए वेश्या, गणिका, सती जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है लेकिन उसके समानार्थी शब्द पुरुषों के लिए नहीं मिलते. समाज ने ग्रंथों के ज़रिए महिलाओं को बहुत रचा गढ़ा है और जब लोकसाहित्य में जाएंगे तो और ख़राब प्रकार या रूप ही निकलेगा.
प्रोफ़ेसर बदरी नारायण के अनुसार, हमारे समाज में एक जो व्यापक सेंसरिंग थी- परंपरा, मूल्यों और मानवीयता की, वो कमज़ोर हुई है. हालांकि महिलावादी बहुत से आंदोलन चल रहे हैं, जागरुकता भी बढ़ रही है लेकिन जेंडर लगातार मारजिन पर चला जाता है और वो सोशल कॉन्शिएनशस को नहीं बदल पा रहे हैं.
उनके अनुसार फ़र्क़ इतना आया है कि जहां महिलाएं काम कर रही वहां सीधे कोई गाली नहीं देता. जो पीछे से तंज़ कसे जाते थे वो कम हो रहे हैं क्योंकि दोनों में संवाद हो रहा है ,साथ काम कर रहे हैं, खाना खा रहे हैं तो पहले जो अलग-थलग होने की भावना ख़त्म हुई है, थोड़े बदलाव आये हैं लेकिन ये बहुत छोटा तबक़ा है, बहुत बड़ा तबक़ा अभी भी वैसा ही है. और गाली सिर्फ़ गाली देना ही नहीं है वो मानसिकता का प्रतीक भी है जो विभत्स गाली देते हैं और उसे व्यावहारिकता में लाते हैं इसलिए निर्भया जैसे मामले दिखाई देते हैं.