लखनऊ. वैसे तो यूपी में विधानसभा चुनाव 2022 में होने हैं, लेकिन सत्तारूढ़ बीजेपी समेत अन्य विपक्षी दलों की निगाहें दलित वोट बैंक पर टिक गई हैं. 14 अप्रैल को बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर जयंती के मौके को भी सियासी बना दिया गया है. सभी दल आंबेडकर को अपना बनाने में जुटे हैं, जहां एक ओर बीजेपी इस दिन को समरसता दिवस के तौर पर मना रही है तो वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने इस दिन को दलित दिवाली के तौर पर मानाने का आदेश दिया है. कांग्रेस भी पीछे नहीं है और वह भी अपनी दावेदारी ठोक रही है.
पिछले लोकसभा चुनावों में लगभग 75 प्रतिशत जाटवों ने एसपी-बीएसपी और आरएलडी गठबंधन को वोट दिया, लेकिन गैर-जाटव दलितों में से लगभग 42 प्रतिशत ने ही उन्हें वोट दिया। गैर जाटव दलित मतदाताओं में से 48 प्रतिशत ने बीजेपी उम्मीदवारों को चुना। यही समीकरण राजनीतिक दलों को अपनी ओर खींच रहा है. बीजेपी और कांग्रेस के निशाने पर जाटव को छोड़कर बाकी दलित जातियां है. यही कारण है कि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के निशाने पर भी कांग्रेस और बीजेपी हैं.
अखिलेश बनाएंगे बाबा साहेब वाहिनी
अखिलेश यादव ने बकायदा बाबा साहेब वाहिनी बनाने की घोषणा कर दी है. दूसरी तरफ अंबेडकर जयंती को समरसता दिवस के रुप मे मनाने पर बीजेपी प्रदेश उपाध्यक्ष विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि कुछ राजनीतिक दल हैं जो वोट के लिए ये सब करते हैं. बीजेपी सबका साथ सबका विकास के लिए काम करती है और इसी के तहत हर जाति धर्म के लोगों के पास पहुंचती है. दूसरी तरफ राम मंदिर आंदोलन से जुड़े एक दलित कामेश्वर चौपाल को तो राममंदिर निर्माण ट्रस्ट में बतौर सदस्य लिया गया है, जो कि बीजेपी और आरएसएस के रणनीति का हिस्सा है. वहीं कभी दलित वोट पर राज कर चुकी कांग्रेस भी आंबेडकर को अपनाने में पीछे नहीं है. कांग्रेस प्रवक्ता अशोक सिंह कहते हैं कि चुनाव देखकर दूसरे राजनीतिक दल अंबेडकर और दलित को याद कर रहे हैं,जबकि सबसे ज्यादा अत्याचार इन्हीं दलों के शासन मे होता.
क्यों महत्वपूर्ण है दलित वोट बैंक
अभी समय दलित आंदोलन के ठहराव और बिखराव का चल रहा है, क्योंकि यूपी में अनुसूचित जाति वर्ग में जाटव और चमार ही सामाजिक न्याय के पुरोधा बनते रहे हैं. उनके ही वर्ग की अन्य जातियों जैसे पासी, कोरी, धोबी, खटिक, बाल्मिकि वगैरह को संदेह की नजर से देखा जाता है. यही कारण है कि दलित नेताओं का नया ठिकाना बीजेपी और कांग्रेस बनी. जैसे कौशल किशोर, स्वामी प्रसाद मौर्य, लालजी निर्मल, जुगल किशोर डॉ. उदित राज, पीएल पुनिया, आरके चौधरी, अशोक दोहरे, राकेश सचान वगैरह वगैरह. सपा का बाबा साहेब वाहिनी बनाना भी इसी रणनीति का हिस्सा है. क्योंकि दलित पॉलिटिक्स में एक तरफ चंद्रशेखर की एंट्री ये बताने के लिए काफी है कि बसपा का दलित वोट बैंक बिखर रहा है, जिसे दूसरे राजनीतिक दल आंबेडकर के बहाने सहेजंने की कोशिश मे जुट गए हैं.