अफ़ग़ान-तालिबान वार्ता, कितनी मुश्किल है आगे की डगर


अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान के बीच क़तर में पहली औपचारिक शांति वार्ता शुरू हो चुकी है.

ये अफ़ग़ान-तालिबन की बातचीत में एक नए चरण की शुरुआत है.

इस वार्ता में अफ़ग़ान विदेश मंत्री हनीफ अतमर और राष्ट्रीय समाधान के लिए बनी उच्च परिषद के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला भी शामिल हैं.

ये परिषद तालिबान के साथ शांति वार्ता पर विचार के लिए बनाई गई थी.

हाल ही में अफ़ग़ान तालिबान ने अपनी 21 सदस्यीय टीम में कुछ बदलाव भी किए हैं.

इसमें शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनिकज़ाई की जगह धार्मिक गुरु शेख़ अब्दुल हकीम हक़्क़ानी को प्रतिनिधिमंडल का प्रमुख बनाया गया है.तालिबान और अफ़गान सरकार के बीच बहुत बाद तक क़ैदियों की रिहाई को लेकर विवाद रहा

कैदियों की रिहाई बनी रुकावट

ये शांति वार्ता महीनों की देरी के बाद हो रही है.

इसे पहले मार्च में शुरू होना था लेकिन एक क़ैदियों की रिहाई पर असहमति और देश में लगातार हो रही हिंसा के कारण इस वार्ता में रुकावट आ गई.

अमरीका-तालिबान शांति समझौते में कैदियों की रिहाई अफ़ग़ान-तालिबान वार्ता शुरू करने की पूर्व शर्त थी.

तालिबानी कैदियों की रिहाई मार्च में शुरू होनी थी. लेकिन, कुछ कैदियों को लेकर विवाद शुरू हो गया.

खासतौर पर वो 400 कैदी जो गंभीर अपराधों में लिप्त थे. इसके चलते कई महीनों की देरी हो गई.

अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा

आख़िर में, अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ गनी की 7 अगस्त को 3,400 सदस्यीय लोया जिरगा (बड़ी सभा) की बैठक बुलाई.

लोया जिरगा ने बचे हुए तालिबानी कैदियों की रिहाई को हरी झंडी दे दी.

लोया जिरगा ने ना सिर्फ़ कैदियों की रिहाई को लेकर गतिरोध ख़त्म किया बल्कि अफ़ग़ान-तालिबान वार्ता के लिए भी शुरुआत की.

तीन सितंबर को अफ़ग़ान सरकार के सभी तालिबानी कैदियों को रिहा करने के बाद वार्ता के लिए हलचल तेज हो गई.

शांति वार्ता के लिए दोनों पक्षों के आगे बढ़ने के बावजूद भी अफ़ग़ानिस्तान में लगातार हिंसा ज़ारी है.राजधानी काबुल में जनवरी में 2018 हुआ एक आत्मघाती बम हमला

तूफ़ान से पहले कोई शांति नहीं

पिछले कुछ हफ़्तों में अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल के आसपास कई तालिबानी हमले हुए.

इससे अफ़ग़ानिस्तान के लोगों में तालिबान के हिंसा कम करने का वादा पूरा करने को लेकर चिंता बढ़ गई है.

कुछ जानकारों का मानना है कि हिंसा ज़ारी रखकर तालिबान शांति वार्ता में खुद को ऊपर रखना चाहता है.

शांति को लेकर “अस्पष्ट” दृष्टिकोण के लिए तालिबान की आलोचना होती रही है क्योंकि तालिबान ने शांति वार्ता को देखते हुए संघर्षविराम पर सहमति नहीं जताई.

इसके साथ ही, हाल के हमलों को देखते हुए खुद को इस्लामिक स्टेट (आईएस) कहने वाले चरमपंथी संगठन का ख़तरा भी बढ़ गया है.राजधानी काबुल में जनवरी में 2018 हुआ एक आत्मघाती बम हमला

मुश्किलों से घिरी शांति प्रक्रिया

अमरीका भी अफ़ग़ानिस्तान से चरणबद्ध तरीक़े से और ‘शर्तों के साथ’ अपने सैनिक वापस बुला रहा है.

ऐसे में अफ़ग़ानियों में सुरक्षा को लेकर चिंता भी बढ़ गई है.

अफ़ग़ान-तालिबान वार्ता में संघर्षविराम और शांति वार्ता के बाद की व्यवस्था को लेकर फ़ैसला होना है लेकिन, इसके सामने कई रुकावटें भी हैं.

ऐसी कई बाधाएं हैं जिनका असर वार्ता में सकारात्मक नतीजों तक पहुंचने पर पड़ सकता है.

दोनों पक्षों की विचारधारा में बहुत अंतर है जिसका प्रभाव वार्ता पर पड़ना लाज़िमी है.

तालिबान का प्रतिनिधित्व

अफ़ग़ानिस्तान के कई लोग ये उम्मीद करते हैं कि सरकार को तालिबान से बातचीत में धार्मिक स्वतंत्रता, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार और प्रेस की स्वतंत्रता जैसी देश की प्रमुख उपलब्धियों की सुरक्षा करनी चाहिए.

लेकिन, तालिबान इन मसलों पर कट्टर नज़रिया अपनाता आया है. वो शरिया लागू करने का पक्षधर रहा है.

इसकी झलक इस बात से भी मिलती है कि तालिबान का प्रतिनिधित्व एक धार्मिक गुरु शेख़ अब्दुल हाकिम कर रहे हैं.

इस वार्ता में एक चुनौती पारदर्शिता की है. अफ़ग़ानिस्तान में एक समूह ने इस वार्ता में मीडिया की उपस्थिति की भी मांग की है.

उनका कहना है सरकार और तालिबान के बीच अकेले में हुई इस वार्ता से अफ़ग़ानियों के भरोसे को चोट पहुंचेगी और समझौते के बाद की स्थितियों को लेकर चिंताएं पैदा होंगी.अशरफ गनी और अब्दुल्ला अब्दुल्ला

अफ़ग़ान सरकार में आपसी तनाव

इसके अलावा, गतिरोध की स्थिति में एक निष्पक्ष मध्यस्थ का होना भी बहुत ज़रूरी है.

लेकिन, तालिबान ने किसी भी मध्यस्थ की संभावना को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया.

इस प्रक्रिया में चौथी बाधा है कि अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ गनी का अंतरिम सरकार को सत्ता सौंपने का विरोध करना.

उन्होंने इसे ‘असफल विचार’ कहा था.

अफ़ग़ानिस्तान के पहले उप-राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह ने हाल ही में पुष्टि की थी कि सरकार अंतरिम व्यवस्था को लेकर किसी भी तरह की चर्चा के लिए तैयार नहीं है.

व्यापक संघर्ष विराम

इसके अलावा, राष्ट्रीय समाधान को लेकर बनी उच्च परिषद में राष्ट्रपति की नियुक्तियों को लेकर खड़े हुए विवाद ने भी शांतिवार्ता में सरकार की स्थिति को कमज़ोर किया है.

इस परिषद के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने नियुक्तियों में राष्ट्रपति की भूमिका का विरोध किया था.

आखिर में सबसे बड़ी बाधा है तालिबान का व्यापक संघर्ष विराम के लिए प्रतिबद्धता ना दिखाना.

भले ही 2001 में संघर्ष शुरू होने के बाद से तालिबान ने थोड़े समय के लिए तीन बार संघर्ष विराम किया है लेकिन उसने संघर्ष विराम को लेकर कोई गांरटी नहीं दी है जिससे ये वार्ता और मुश्किल हो जाती है.