श्री बाबू संघर्षशील, जुझारू और दूरदर्शी कांग्रेसी राजनेता थे। वह सामाजिक न्याय व साम्प्रदायिक सद्भाव के भी प्रणेता समझे जाते हैं। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के सन्तुलित विकास पर ध्यान देते हुए बिहार और देश को बहुत कुछ दिया है। समझा जाता है कि तत्कालीन किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती अपना वैचारिक लट्ठ लेकर उनके पीछे पड़े रहते थे, इसलिए सफलता और यश ने उनको वरेण्य किया। यदि कोई उन्हें गुमराह या प्रभावित करने की कोशिश करता तो स्वामी जी का परोक्ष भय अथवा प्रेम दिखाकर वह उन्हें वसीभूत कर लेते थे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि समकालीन कांग्रेस अपने उन जैसे राजनैतिक नवरत्नों के नक्शेकदम पर चलती, उनके सियासी समीकरणों से खुद को जोड़े रखती तो आज उसकी इतनी दुर्गति कभी नहीं होती। जानकारों की राय में, चूंकि अपने भूमिहार ब्राह्मण समाज के स्वतंत्रता कालीन जुझारूपन से उन्हें आगे बढ़ने में काफी मदद मिली थी, लेकिन इस समाज की तत्कालीन गरीबी को देखते हुए उन्होंने उसे अनुसूचित जाति संवर्ग में रखने की एक पहल करने की सोची थी, लेकिन समाज के गणमान्य लोगों के सशक्त प्रतिरोध के कारण उन्हें अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ा था।
कहना न होगा कि यदि वह अपने इस पुनीत सामाजिक उद्देश्य में सफल हुए होते तो आज भारतीय सियासत और प्रशासन में भूमिहार ब्राह्मणों को उस उपेक्षा, हिकारत भाव और अभावग्रस्तता का वह दिन नहीं देखना पड़ता, जैसा कि आज यह समाज न केवल देख रहा है बल्कि रह रह कर उसकी सार्वजनिक पीड़ा का इजहार भी समाज के सजग लोग कर रहे हैं।
सच कहा जाए तो दूरदर्शिता के इन मायनों में वह पीएम नरेंद्र मोदी के समान अग्रसोची समझे जा सकते हैं, जिन्होंने गुजरात की अपनी अगड़ी जाति को पिछड़ी जाति में शामिल करवाकर अपार जनसमर्थन हासिल कर लिया। ऐसा करके उन्होंने न केवल गुजरात, बल्कि भारतीय सियासत का भी चेहरा बदलने में सफल दिखाई दे रहे हैं। युवा राष्ट्रवादी नेता व समाजसेवी राजीव रंजन राय बताते हैं कि तब श्री बाबू भी ऐसा करके भारतीय प्रधानमंत्री पद को अपने लिए सुरक्षित करना चाहते थे। लेकिन पीएम नेहरू की व्यक्तिगत सजगता से प्रभावित उनके शुभचिंतकों ने श्री बाबू की इस योजना के विरुद्ध उनके ही समाज के लोगों को परोक्ष रुप से खड़ा करके भड़का दिया, जिससे उनके अरमानों पर पानी फिर गया।
वाकई, तब कहा भी जाता था कि जब सीएम श्री बाबू पटना से दिल्ली दाखिल होते थे तो उस पीएम नेहरू की राजगद्दी हिलने लगती थी, जिनका समकालीन राजनीति में कोई मुकाबला नहीं था। तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी सहित बहुतेरे ऐसे राजनेता रहे, जिनके परोक्ष सियासी प्राणवायु श्री बाबू की सियासी नीतियां समझी जाती थीं। यह कौन नहीं जानता कि स्वतंत्रता सेनानी व उनके सहयोगी डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह उनके मंत्रिमंडल में उपप्रधानमंत्री, उपमुख्यमंत्री व वित्तमंत्री के रुप में आजीवन साथ रहे।
स्वाभाविक सवाल है कि क्या उन महानुभावों जैसी राजनीतिक शिष्टता की परिकल्पना मौजूदा राजनीतिक दौर में की जा सकती है, जबकि जन अपेक्षाएं वैसी ही रहती आई हैं। उसी बिहार ने राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और जदयू सुप्रीमो नीतीश कुमार के बीच जैसी सियासी रस्साकशी देखी है और देख रही है, उससे श्री बाबू के स्मरण का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। यह कौन नहीं जानता कि तत्कालीन सीएम श्री बाबू के मात्र 10 वर्षों के शासनकाल में बिहार में उद्योग, कृषि, शिक्षा, सिंचाई, स्वास्थ्य, कला व सामाजिक क्षेत्र में की उल्लेखनीय कार्य हुये। उनमें आजाद भारत की पहली रिफाइनरी- बरौनी आॅयल रिफाइनरी, आजाद भारत का पहला खाद कारखाना- सिन्दरी व बरौनी रासायनिक खाद कारखाना, एशिया का सबसे बड़ा इंजीनियरिंग कारखाना-भारी उद्योग निगम (एचईसी) हटिया, देश का सबसे बड़ा स्टील प्लांट-सेल बोकारो, बरौनी डेयरी, एशिया का सबसे बड़ा रेलवे यार्ड-गढ़हरा, आजादी के बाद गंगोत्री से गंगासागर के बीच प्रथम रेल सह सड़क पुल-राजेंद्र पुल, कोशी प्रोजेक्ट, पुसा व सबौर का एग्रीकल्चर कॉलेज, बिहार, भागलपुर, रांची विश्वविद्यालय इत्यादि जैसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं।
यह बात दीगर है कि सन 2000 में हुए बिहार विभाजन के बाद अब कुछ चीजें झारखंड में चली गई हैं। कहना न होगा कि उनके शासनकाल में संसद के द्वारा नियुक्त फोर्ड फाउंडेशन के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री एपेल्लवी ने अपनी रिपोर्ट में बिहार को देश का सबसे बेहतर शासित राज्य माना था और बिहार को देश की दूसरी सबसे बेहतर अर्थव्यवस्था बताया था। यही वजह है कि अविभजित बिहार के विकास में उनके अतुलनीय, अद्वितीय व अविस्मरणीय योगदान के लिए “बिहार केसरी” श्रीबाबू को आधुनिक बिहार के निर्माता के रूप में जाना जाता है। अधिकांश लोग उन्हें सम्मान और श्रद्धा से “बिहार केसरी” और “श्रीबाबू” के नाम से संबोधित करते हैं। यह कहना समीचीन होगा कि समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली यूपी की 1967 की संविद सरकारों की नीतियों और पिछड़ा पावै सौ में साठ जैसे लोकप्रिय नारों का जातीय असर बिहार पर भी पड़ा। फिर तथाकथित सम्पूर्ण क्रांति के बाद बिहार में 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार और जनता दल की लहर के फलस्वरूप 1990 में बनी जनता दल की सरकार ने बिहार को सामाजिक अध:पतन और अपराध की ऐसी सियासी घाटी में धकेला, जिससे उबरने की कुव्वत समकालीन राजनेताओं में कहां दिखाई दे रही है। वर्तमान मुख्यमंत्री व जदयू सुप्रीमो नीतीश कुमार ने बेपटरी बिहार को पटरी पर लाने की असफल कोशिश की, लेकिन दिल्ली दरबार की चालाकी और अपने सहयोगियों की स्वार्थी फितरत के चलते सूबाई सियासत का चाणक्य कैसे चौराहे दर चौराहे पर चित्त दिखाई दे रहा है, मुझसे बेहतर बिहारवासी समझते होंगे।
कोई भी सफल राजनेता सामाजिक धरोहर जैसा होता है। इसलिए सरकार भी उनकी स्मृतियों को सहेजने का कार्य करती है, ताकि उनके आईने में भव्य अतीत का दर्शन करवाकर समाज को ऊर्जान्वित किया जा सके। इसी उद्देश्य से बिहार सरकार ने श्री बाबू के जन्म स्थान खनवां गांव (नवादा जिला) जहां उनका ननिहाल है, को विकसित करने व उनसे जुड़ी स्मृतियों को जीवंत बनाये रखने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में लगभग दो सौ करोड़ की लागत से कई योजनाओं को धरातल पर उतारने का काम किया है। इनमें उनकी स्मृति में एक स्मारक भवन, पार्क, पॉलीटेक्निक कॉलेज, हॉस्पिटल, पावर हाउस, पावर ग्रिड इत्यादि का निर्माण प्रमुख हैं। वहीं, उनके पैतृक गांव माउर जिला शेखपुरा में उनकी स्मृति में एक प्रवेश द्वार बनाया गया है। वहीं, श्रीबाबू के पैतृक आवास पर व बरबीघा चौक पर एक-एक प्रतिमा स्थापित की गई है, साथ ही, विभिन्न शिक्षण संस्थाओं का नामांकरण श्रीबाबू की स्मृति में किया गया है।
आपको पता होगा कि उनकी कर्मभूमि गढ़पुरा समझी जााती है, जहां सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान गांधी जी ने गुजरात में साबरमती आश्रम से लगभग 340 किलोमीटर की पदयात्रा कर दांडी में अंग्रेजी हुकूमत के काले नमक कानून को भंग किया था। तब गांधी जी के आहवान पर बिहार में बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिन्हा “श्रीबाबू” ने मुंगेर से गंगा नदी पार कर लगभग 100 किलोमीटर लंबी दुरुह व कष्टप्रद पदयात्रा कर गढ़़पुरा के दुर्गा गाछी में अपने सहयोगियों के साथ अंग्रेजों के काले नमक कानून को तोड़ा था। इस दरम्यान ब्रिटिश फौज के जूल्म से उनका बदन नमक के खौलते पानी से जल गया था, पर वह हार नहीं माने थे।
सर्वविदित है कि गढ़़पुरा के इस ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह के बाद महात्मा गांधी ने उन्हें बिहार के प्रथम सत्याग्रही कहा था। 82 वर्षों की घोर उपेक्षा के बाद गढ़़पुरा नमक सत्याग्रह गौरव यात्रा समिति बेगूसराय की पहल पर 2012 में उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, 2013 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व 2014 में मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी वहां पहुंचे और बाधाओं के बावजूद, स्वतंत्रता संग्राम की इस अनमोल विरासत व श्रीबाबू की कर्मभूमि के दिन बहुरने लगे हैं। यहां एक स्मारक निर्माणाधीन है, इस हेतु भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया चल रही है।
खास बात यह कि ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह की स्मृति में पिछले कई वर्षों से एक पदयात्रा “गढ़़पुरा नमक सत्याग्रह गौरव यात्रा” का आयोजन किया जा रहा है। वर्तमान में यह पदयात्रा प्रतिवर्ष 17 अप्रैल को मुंगेर के श्रीकृष्ण सेवा सदन से प्रारंभ होकर वाया बलिया, बेगूसराय, मंझौल, रजौड़ 21 अप्रैल को गढ़़पुरा पहुंचती है। सरकार ने बेगूसराय से गढ़़पुरा नमक सत्याग्रह स्थल तक जाने वाली लगभग 34 किलोमीटर लंबी सड़क का नामांकरण “नमक सत्याग्रह पथ” किया है। किसी भी ऐतिहासिक घटना की स्मृति में नामांकित देश की यह सबसे लंबी सड़क है। गढ़़पुरा के छोटे से हॉल्ट जैसे स्टेशन का नामांकरण श्रीबाबू की स्मृति में “डॉ.श्रीकृष्ण सिंह नगर-गढ़पुरा” किया गया है जिसका स्टेशन कोड ‘डीएसकेजी’ है। यहां करोड़ों की लागत से कई उल्लेखनीय विकास कार्य हुए हैं और यात्री सुविधाओं का विस्तार हुआ है।
इसके अलावा, मुंगेर में कष्टहरणी घाट के निकट गंगा नदी पर नवनिर्मित रेल सह सड़क पुल का आधिकारिक रूप से नामांकरण “श्रीकृष्ण सेतु” किया गया है। जबकि, पटना में गांधी मैदान के उत्तरी भाग में राजधानी का सबसे बड़ा सभागार “श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल” का निर्माण किया गया है, जहां उनकी एक आदमकद प्रतिमा भी स्थापित किया गया है। इसके अलावा, गांधी मैदान, पटना के पश्चिमी छोड़ पर श्रीबाबू की स्मृति में “श्रीकृष्ण विज्ञान केन्द्र” की स्थापना की गई है। वहीं, बेगूसराय के जीडी कॉलेज, श्रीकृष्ण महिला कॉलेज, नगर निगम चौक, कचहरी रोड, श्रीकृष्ण इंडोर स्टेडियम व रिफाइनरी टाउनशिप में “बिहार केसरी” श्रीबाबू की स्मृति में प्रतिमा स्थापित की गई है। श्रीबाबू की स्मृति में यहां एक इनडोर स्टेडियम और कचहरी रोड पर जिला परिषद का एक विशाल कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स भी है। उनके नाम से झारखंड की राजधानी रांची में एक पार्क है, क्योंकि किसी समय में झारखंड बिहार का ही एक भाग था। अब तो देश-विदेश में भी उनकी स्मृतियों को जीवंत बनाये रखने के लिए उनकी जयंती व पुण्यतिथि पर बिहारवासियों व उनके समाज के पहरुओं द्वारा विभिन्न तरह के कार्यक्रम व ब्याख्यान आयोजित किये जा रहे हैं, जिससे उनकी प्रासंगिकता जनमानस में आज तक बरकरार है।