मिट्टी के दीयों से कुम्हारों में जगी उम्मीद की रोशनी


गाज़ीपुर । दीपों का पर्व दीपावली में अब मात्र कुछ दिन बचे हैं।इस समय कुम्हारों के हाथ भी चाक पर अनवरत घडी के सेकेंड की सूई की तरह दौड रहे हैं। कुम्हारों की बस्तियों में जिधर भी नजर जा रही है सब के सब मिट्टी के दीये बनाने में जुटे नजर आ रहे हैं।उनको यह विश्वास है की इस बार उनके घूमते चाक से उतरने के बाद दीपक उनके घर में खुशियां लायेंगे।भला हो भी क्यों नहीं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन की टक्कर के बीच आत्मनिर्भर भारत के बीच वोकल फार लोकल का नाम जो दिया है।यही वजह है की कुम्हार सुबह से लेकर रात तक मिट्टी के दीये खिलौने और अन्य सामान बनाने में जुटे हैं।कोलोना काल में संकटो का सामना कर चुके कुम्हार अबकी दीपावली से उम्मीद के सहारे मिट्टी के दीये बना रहे है।

जिनके हाथों की कारीगरी की बदौलत मिट्टी से बने खूब सूरत दीये दीपावली में लगभग हर घर को रोशन करते थे। जिनके हाथों से बनी लक्ष्मी गणेश की मुर्तियों को दिपावली में हर घर में श्रद्धा एवम भक्ति से आज तक पूजा जा रहा था अब उन्हीं हाथों को आने वाले समय में बेरोजगार होने का डर सता रहा है। यह डर उन तमाम कुम्हारों का है, जो कई वर्षों से यही पुश्तैनी काम कर रहे हैं और इसी के जरिए अपने पूरे परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। अब उन्हें यह चिंता सता रही है कि कहीं प्लास्टिक और-चाइनीज के सामान और फैंसी दीयों का बढ़ता ट्रेंड, उनके घरों के चूल्हे को ठंडा न कर दे।

कई पीढ़ियों से मिट्टी के बर्तन बना रहे कारीगर बताते हैं कि उनके यहां कई सालों से मिट्टी के बर्तन और दीये बनाए जा रहे हैं। उन्हें यह काम विरासत में मिला है। पहले तो इस काम में न सिर्फ फायदा था, बल्कि इनकी बिक्री भी खूब होती थी, लेकिन बदलते जमाने और प्लास्टिक-चाइनीज के सामानों का प्रयोग बढ़ने की वजह उनके काम पर असर पड़ रहा है। बताया कि दीपावली ही ऐसा त्योहार है, जिसमें मिट्टी से बने सामानों की अच्छी बिक्री हो जाती है। आम दिनों में तो बस उतना ही खर्चा निकल पाता है, जितनी लागत लगाते हैं। यही नहीं, उस जमाने में प्लास्टिक और चाइनीज बर्तनों-खिलौनों का उतना चलन भी नहीं था। इस वजह से उन्हें अच्छी आमदनी मिल जाती थी।

मिट्टी के खिलौनों की जगह इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स ने ले ली। पहले चकिया, घरौंदे, गुड्डा-गुड़िया, गुल्लक और छोटे-छोटे बर्तन बच्चों को खूब भाते थे। वहीं, शादी समारोह में मिट्टी की प्याली एवम कुल्हण चलता था लेकिन धीरे-धीरे इनकी जगह प्लास्टिक के सामानों ने ले ली। अब तो गांवों में मेला लगने का चलन भी खत्म हो गया है। दीपावली में मिट्टी के बजाय लोग फैंसी दीये खरीद रहे हैं। बच्चों के हाथों में चकिया और घरौंदे जैसे खिलौनों की जगह इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स नजर आने लगे हैं।

चाइनीज दीयों-झालरों की मार्केट में भरमार हो गयी है।

चाइनीज सामानों ने कुम्हारों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। मार्केट में अभी भी चीन के खिलौनों की भरमार है। वहीं, हर घर में इलेक्ट्रॉनिक दीये और रंग-बिरंगी झालरे ही नजर आती हैं। उस दौर में लोग मिट्टी के दीयों से ही घरों को रोशन करते थे। इस वजह से न सिर्फ कुम्हार बेरोजगार हो रहे हैं बल्कि सरकारी मदद की राह देख रहे हैं ।

इस वक्त 60 रुपए के 100 दीये बिक रहे हैं। वहीं, मार्केट तक सामान लेकर जाने और आने में करीब 50 दीये फूट जाते हैं। ऐसे में कुम्हारों को काफी नुकसान होता है। कुम्‍हारों के मुताबिक सरकार ने भी उनके लिए ऐसी कोई योजना नहीं चलाई है, जिससे इस परंपरागत हुनर को बढ़ावा मिल सके साथ ही कुम्हारों को पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर न होना पड़े।प्रदेश सरकार के द्वारा इनके लिए इस समय अनेक योजनाओं को लागू किया गया है। उम्मीद ही एक वजह है कि आज भी उनकी बूढ़ी आंखें सरकारी मदद की राह देख रही हैं। ।अतिक्रमण का शिकार होने से पोखरी एवम तालाब समाप्त हो रहे है। अपने सामान के निर्माण के लिए इनको मिट्टी भी बहुत मेहनत करने पर दूर दूर से लाना पडता है।अब चायनीज सामान के बहिष्कार की अपील खुद देश के प्रधानमंत्री से लेकर सोशल मिडिया के माध्यम से देश के कोने कोने में हो रहा है। अब इस दिपावली पर्व को लेकर सभी भारतीय कुम्हारों के चेहरे पर आशा रूपी दिये की बाती अभी से जल रही है। सभी के आंखो में उम्मीद की लौ टिमटिमा रही है। देखना है की इसका कितना असर इनके जीवन पर पडता हैं।