कचहरी का नशा बुढ़ौती तक छूटता नहीं…


ऐसा नहीं कि चैंबर में मुवक्किलों का ताता लगा है और चौकी पर बेशुमार भीड़ है। बावजूद इसके सुबह 10 बजे सूटेड-बूटेड होकर घर से निकल पड़ते हैं। कई वरिष्ठ अधिवक्ता जिनके पास मुकदमों की कतार है, उनका तथा उनके जूनियरों का पहुंचना तो लाजिमी है। परंतु बहुतेरे ऐसे भी है जो बहती गंगा में हाथ धोने पहुंचते हैं। यह उद्गार भाजपा के वरिष्ठ नेता धर्मेंद्र सिंह का है। उनका कहना है जिसे कचहरी का नशा लगा व बुÞढ़ौती तक नहीं छूटता। पं. धर्मशील, बाबू मंशाराम सिंह, चरणदास सेठ, बाबू विंध्यवासिनी सिंह, संकठा सिंह, बाबू गिरधरदास या नुरूल हक साहब को बुढ़ापे में भी कचहरी का मोह इन्हें घेरे रहा। मुवक्किल भी तमाम ऐसे जिन्होंने विरासत में मिली फाइल का बोझ लिए खुद की जिंदगी खपा दी, फिर अगली पीढ़ी को सौंप दिया। एलएलबी की डिग्री लिए तमाम बेरोजगार छात्र भी बेरोजगारी की खीझ काला कोट पहनकर उतारते हैं। ऐसे में यदि देखा जाय तो कचहरी में 60 फीसदी भीड़ बेवजह की जमा होती है। इस लॉकडाउन में। वकील मुवक्किल सब तड़प गए। जीवन का यह पहला अनुभव है जो भीतर से सालता है पर करें क्या। दो पैसे फीस की गरज नहीं, ख्वाहिश महज सामाजिक प्राणियों से मिलने की। क्योंकि। मनुष्य सामाजिक प्राणी है।