(विशेष प्रतिनिधि)
वाराणसी (काशीवार्ता)। चुनाव आचार संहिता की आड़ में पुलिस ऐसे-ऐसे कार्य कर रही है जिसकी कानून इजाजत नहीं देता। इन्ही में से एक है लाइसेंसी असलहाधारियों से उनके शस्त्र जमा करवाना। किसी भी कानून में थोक के भाव से असलहे जमा कराने का प्राविधान नहीं है। सिर्फ दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा प्राविधान है परंतु वह भी व्यक्ति विशेष के संदर्भ में है। परन्तु देखा यह गया है कि किसी भी चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही जिले के पुलिस कप्तान द्वारा एक फरमान जारी कर दिया जाता है कि सभी थाना क्षेत्र में शतप्रतिशत शस्त्र जमा करा लिये जाये। इससे आम शस्त्रधारकों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। तब परेशान होकर असलहाधारी अदालतों का रुख करते हैं।
अभी पिछले दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक रिट याचिका के क्रम में आदेश दिया था कि बिना वजह सभी के शस्त्र न जमा कराए जाये। बल्कि जिस असलहाधारी का आपराधिक इतिहास हो सिर्फ उसी व्यक्ति का शस्त्र जमा कराया जाय वह भी लिखित कारण बताने के साथ।
यह आदेश न्यायमूर्ति एस डी सिंह ने किसी अनीस अहमद की याचिका पर दिया था जिसमें याचिकाकर्ता ने कहा था कि उसका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और उसने निजी सुरक्षा के लिये लाईसेंसी पिस्टल ले रखी है।
इसके पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ही 2014 के चुनाव में ऐसा ही एक आदेश जारी किया था। न्यायमूर्ति पंकज नकवी ने अपने आदेश में कहा था कि डीजीपी सभी पुलिस कप्तानों को इस आशय का एक आदेश जारी करें कि बिना किसी ठोस वजह के किसी व्यक्ति का शस्त्र न जमा कराया जाय। सिर्फ आपराधिक इतिहास वाले ऐसे व्यक्ति का शस्त्र जमा कराया जा सकता है जिससे चुनाव में गड़बड़ी या लोक शांति भंग होने का खतरा हो।
दरअसल देखा जाय तो समाज में बड़ी संख्या में डॉक्टर, वकील, व्यवसायी, पत्रकार आदि लाइसेंसी असलहाधारी हैं। चुनाव आते ही इनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं क्योंकि एक तो थाने या बंदूक की दुकान पर शस्त्र जमा करने से उस अवधि में सुरक्षा का खतरा काफी बढ़ जाता है दूसरे असलाह जमा करना और उसे रिलीज कराने में समय और श्रम दोनों का नुकसान होता है। दुकान पर जमा करने पर न्यूनतम 500 रुपया महीना किराया अलग से देना पड़ता है। अभी विधानसभा की अधिसूचना जारी हुई है। इसके बाद निकाय चुनाव की तैयारियां शुरू हो जाएंगी। यानी एक बार फिर असलहा जमा करना और रिलीज कराने की माथापच्ची।
ऐसा नहीं है कि इस तुगलकी निर्णय से सिर्फ असलहाधारी ही परेशान हैं बल्कि पुलिस महकमें के ऊपर भी काम का अनावश्यक बोझ पड़ता है। कप्तान थाने से, थानेदार चौकी से और चौकी इंचार्ज बीट सिपाही से असलहों की रिपोर्ट तलब करते हैं। जिसके क्षेत्र में कम असलहे जमा होते हैं उसके ऊपर कार्रवाई की तलवार लटकी रहती है। जिन्हें असलहा जमा न करने की छूट चाहिये उनसे एक प्रार्थनापत्र लिखवाया जाता है। अब यह मजिस्ट्रेट के ऊपर है कि वह छूट दे या न दे। जबकि होना तो यह चाहिये कि सिर्फ उन्हीं असलहाधारियों की थानावार सूची तैयार हो जिनका कोई आपराधिक इतिहास हो। इससे आम असलहाधारी को थाने की दौड़ लगाने से मुक्ति मिल जाएगी। परन्तु अन्य महकमों की तरह पुलिस महकमा भी लकीर का फकीर है। उसे न तो हाईकोर्ट के आदेश से मतलब है न आम आदमी की परेशानी से। उसे तो बरसों से चली आ रही एक परिपाटी से मतलब है जिसमें कहा गया है चुनाव के वक़्त असलहे जमा करा लिये जायें। मानो चुनाव में गड़बड़ी करने वाले लाइसेंसी असलहों से दंगा फसाद करते हों।