संसार में गुरु-शिष्य की परम्परा बड़ी ही प्राचीन है। विशेषकर भारतवर्ष में इस परम्परा को पवित्र बंधन के रुप में मनाया जाता है। प्राय: हर विधा में हर एक गुण का महत्व होता है। गुरु का इन दो शब्दों से व्यापक अर्थ है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का मार्ग गुरु ही प्रशस्त करता है। इसलिए गुरु का स्थान ईश्वर से भी बड़ा कहा गया है।
कबीर की वाणी ‘गुरु गोबिन्द दोऊ खडे, काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपनों गोबिन्द दियो बताय।’ यह इसकी महिमा है लेकिन हमारे देश के इतिहास में कहीं-कहीं गुरु में जात-पात का भी दर्शन होता है। जैसे गुरु द्रोणाचार्य धनुर्विद्या के निपुण जाने जाते थे। जब उनके सामने इस विद्या को प्राप्त करने के लिए दो बालक उपस्थित हुए तो गुरु द्रोणाचार्य का मानसिक संतुलन डगमगाने लगा, कारण जाति-भेद का युग होने के कारण और भी ज्यादा असर था। उनके समक्ष जो दो बालक उपस्थित हुए उनमें से एक का नाम अर्जुन तो दूसरे का नाम एकलव्य था। चूंकि एकलव्य भील जाति से संबंध रखता था। यह बात गुरु द्रोणाचार्य को खटकने लगी अत: उन्होंने एकलव्य को दीक्षा देने से मना कर दिया और सिर्फ अर्जुन के प्रति दृढ़ संकल्पित हुए। यदि किसी भी गुरु के मस्तिष्क में यह बात आती है तो वह गुरु निष्पक्ष नहीं हो सकता। आज जिस गुरु की बात हो रही है वह एक ऐसे गुरु थे जो शिष्यों के प्रति तन, मन, धन से जीवन भर समर्पित रहे। शिष्य चाहे किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय का हो, उनकी दृष्टि सदैव एक सी रहती थी। जी हम बात कर रहे पं. माधव गुरु घूले की जिन्हें माधव गुरु के नाम से समाज जानता है। अथर्ववेद के वैदिक ब्राह्मण माधव गुरु (महाराष्टÑीय ब्राह्मण) थे। बचपन से ही कसरत, व्यायाम के शौकीन थे और जोड़ी गदा में माहिर रूचि रखते थे। जोड़ी फेरने वाले पहलवानों के प्रति वे पूर्ण रुप से समर्पित रहते थे। सिर्फ जोड़ी फेरने से नहीं, बल्कि शिष्यों को दमकशी पर विशेष ध्यान रखते थे, किसी भी पहलवान के प्रति मतभेद-मनभेद न रखने वाले माधव गुरु को प्राय: पहलवानों को बादाम घी के साथ पौष्टिक आहार देते हुए भी लोगों ने देखा है। यही कारण है कि आज माधव गुरु के न रहने पर सर्व-समाज के लोग और उनकी शिष्य मंडली उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा कर रही है। विगत 19-01-2020 को 73 वर्ष के उम्र में निधन हो गया, माधव गुरु वैदिक ब्राह्मण होने के साथ-साथ बाल ब्रह्मचारी भी थे। महज 17 वर्ष की आयु में अखाड़ा रघुनाथ महाराज के (स्व. बुच्ची महाराज) के सानिध्य में आये जो स्वयं बाल ब्रह्मचारी थे। ब्रह्मचारीद्वय का एक ही उद्देश्य था कि नवयुवकों की सुसंगठित कर जोड़ी फेरने के क्षेत्र में चमकाना था और दोनों ने आजीवन इस व्रत का पालन किया, अखाड़ा रघुनाथ महाराज के अखाडेÞ में एक बार प्रवेश करने के बाद आजीवन अखाड़े और शिष्य मंडली के प्रति समर्पित रहे। अखाड़ा रघुनाथ महाराज, काशी व्यायामशाला, अखाड़ा वृत काल ये सभी अखाडेÞ अखाड़ा ‘कोण भट्ट’ की शिष्य परंपरा से है। माधव गुरु का अपना एक अलग व्यक्तित्व था। वैदिक ब्राह्मण के रुप में वह अपनी जीविका चलाने के लिए इस शिक्षा-दीक्षा का प्रयोग करते थे परन्तु उससे प्राप्त होने वाली आय की अपनी जीविका के साथ-साथ शिष्यों पर न्यौछावर करते थे चाहे वह पहलवान किसी भी अखाडेÞ से संबंध रखता। उनका भेदभाव रहित व्यवहार से उनको सभी अखाड़ों के शिष्यों से गुरु तुल्य का दर्जा प्राप्त था। माधव गुरु का संबंध रघुनाथ महाराज के अखाडेÞ के साथ-साथ नामचीन अखाड़ा ‘कोण भट्ट’ से आत्मीय संबंध रहा। इस व्यापार के सोनू गुरु, बासु गुरु, दासू गुरु से भी उनका एक समान व्यवहार था। जोड़ी की ललक के प्रति समर्पित माधव गुरु का अलग परिधान था। सफेद धोती, हाफ बाह की बहकट्टी, सफेद बनियान जाड़े के दिनों में एक जयपुरी दुपट्टा के साथ-साथ मस्तक पर तीन बड़ी-बड़ी भष्म की लकीरों के मध्य चमकता हुआ लाल रंग का गोल टीका उनकी अपनी पहचान थी। प्रात: काल गंगा स्नान कर लौटते वक्त बायें हाथ में एक पीतल की डोलची में पूजन सामग्री वगैरह दायें हाथ में जल से भरा कमंडल के साथ महादेव का उच्चारण करते हुए अपने निवास की ओर जाते हुए रास्ते में मिलने वाले को जल देना यह उनके दैनिक जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा था। दूधविनायक के समीप के एक किराये के मकान में रहते थे। वे भी उस समय के पहलवानों के रियाज हेतु एक छोटा सा अखाड़ा स्थापित किया था जहां उनके शिष्य बचाऊ यादव के देख-रेख में युवा पहलवान रियाज करते थे यानि शिष्यों की सुविधा के लिए अपने को कष्ट हो रहा है। इस बात की उनको चिंता नहीं थी, बिल्कुल अलग किस्म का जीवन जीने वालों में थे। जोड़ी के पीछे उनका प्रेम इतना गहरा था कि एक बार उनको पता चला कि महाराज विजया नगरम के पास एक ऐसी जोड़ी है जिसका कोई जोड़ नहीं है। जब उनको यह पता चला कि महाराजा के पास चांदी से जड़ित जोड़ी है जो अपने आप में एक है। माधव गुरु ने अपने मन में संकल्प लिया कि इस जोड़ी को अपने अखाडेÞ पर ला कर ही चैन लेंगे। माधव गुरु धुन के पक्के थे। वहां एक दिन विजया नगरम की कोठी में पहुंचे और उनके सुपुत्र कुंवर वेंकटेश से विनय कर इस रजत जोड़ी को आखिरकार अपने अखाडेÞ पर ले आये। यह जोड़ी उस समय पहलवानों के बीच बड़ा ही कौतुहल का विषय बना रहा। सर्वत्र माधव गुरु की चर्चा हो रही थी। साथ ही माधव गुरु अपने शिष्यों से इस पर रियाज करवाते थे। माधव गुरु पहलवानों के अलावा संगीत का शौक रखते थे। पुराने गाने के प्रति उनका लगाव था लेकिन वे तब किसी गीत को गाते थे जब वह अपने विशेष मूड में रहते थे। माधव गुरु काशी में पले-बढेÞ और काशी में ही सारा जीवन व्यतीत किया। इसीलिए गंगा व शिव के प्रति उनकी भक्ति स्वाभाविक थी। वे जब शिव के प्रसाद को ले लेते थे तो वह संगीत के रस में तल्लीन होकर अपने शिष्य नरेन्द्र पाण्डेय, राधे यादव वगैरह के साथ पुराने जमाने के गीतों को गाते थे। माधव गुरु 19-01-2020 रविवार को अनन्त की यात्रा पर सदा के लिए निकल पडेÞ। उनको शत-शत प्रणाम। बाबा विश्वनाथ से प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।