वाराणसी(काशीवार्ता)। नाग देव संग भोले दानी को प्रसन्न करने का महापर्व नाग पंचमी को आधुनिकता की अंधी दौड़ ने प्राय: निगल लिया है। अब तो कुछेक संस्थाओं ने परंपरागत आयोजनों के बूते इस पर्व को जिंदा रखा है। एक दशक पूर्व तक इस पर्व की मान्यताओं के साथ ही पर्व का उत्साह भी चरम पर होता था। छोटे-छोटे बच्चों द्वारा गलियों में ‘छोटे गुरू का-बड़े गुरू का नाग लो’ का उद्घोष व घर-घर जाकर नागदेव की फोटो पहुंचाना एवं उसके बदले पैसे लेना, की परंपरा सुबह से ही पर्व की महत्ता का बखान करती नजर आती थी। सपेरों के बीन (खास तरह का वाद्य यंत्र) पर नागिन की धुन बजने एवं नाग देव का साक्षात दर्शन कराकर कृतार्थ करना भी परंपरा में शामिल था। दोपहर होते-होते विभिन्न चौराहों पर महुअर का खेल लोगों को रोमांचित करता था। वहीं तमाम अखाड़ों में जोड़ी-गदा दंगल, कुश्ती दंगल आदि भी देखने हुजूम उमड़ता था। परंतु अब यह सब आधुनिकता की बलि चढ़ चुका है। कुछेक आखाड़ों में ही यह परंपरा जीवित है। पर्व तो आज मनाया जा रहा है, घरों में पकवान भी बने, नागदेव की पूजा भी हुई, लेकिन उत्साह नदारद है। जैतपुरा क्षेत्र स्थित नागकूप के दर्शन को श्रद्धालु पहुंचे। यहाँ वैदिक विद्वानों के बीच परंपरागत शास्त्रार्थ भी हुआ लेकिन पर्व का जोश मौन दिखा। जिन बच्चों के जरिए पर्व सार्थक स्वरूप लेता था, उन बच्चों ने अब पर्व को अपने मोबाइल स्क्रीन अथवा टीवी तक ही समेट लिया है।