(राजेश राय)
वाराणसी (काशीवार्ता)। माफिया डॉन मुख्तार अंसारी को उसके लंबे अपराधिक इतिहास में पहली बार सजा तो जरूर हुई, परंतु इसने न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि पूरे सिस्टम पर सवाल खड़ा किया है। मुख्तार को जिस केस में सजा हुई वह सन् 2003 का मामला है। उस दौरान उसने लखनऊ जेल में रहते जेलर को जान से मारने की धमकी दी थी। कहना न होगा कि तब मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और जेल में रहते मुख्तार के इशारे पर अनेक संगीन वारदात हुए, जिसमें सन् 2005 का सनसनीखेज कृष्णानंद राय हत्याकांड भी शामिल है। हालांकि तमाम गवाहों के मुकरने अथवा रहस्यमय परिस्थितियों में मृत हो जाने से इस मामले में मुख्तार बरी हो गया। सन् 1991 में लहुराबीर क्षेत्र में अवधेश राय की सनसनीखेज ढंग से हत्या कर दी गई थी। उस मामले में भी मुख्तार अंसारी अभियुक्त है। अवधेश राय के छोटे भाई एवं पूर्व विधायक अजय राय की गवाही हो चुकी है। अन्य गवाहों की गवाहियां भी पूर्ण हो चुकी हैं। इस मुकदमे का फैसला शायद अब आ जाएगा। इसके पहले गाजीपुर के ठेकेदार मन्ना सिंह व उसके साथी राजेश राय हत्याकांड में 8 साल तक चले मुकदमे में मुख्तार बरी हो चुका है। यहां भी गवाह या तो मुकर गए या विरोधाभासी बयान दिया। लखनऊ के जेलर एसके अवस्थी अपनी गवाही पर डटे रहें। हालांकि निचली अदालत ने मुख्तार को बरी कर दिया था, परंतु हाईकोर्ट ने नीचे का फैसला उलट दिया। हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले की आलोचना भी की। यह सभी मामले यह बताने के लिए काफी है कि देश की पूरी न्याय व्यवस्था में कहीं ना कहीं घुन लग चुका है, जिससे प्रभावशाली व बाहुबली गवाहों को प्रभावित कर आसानी से बच जाते हैं। इसमें कहीं न कहीं न्यायपालिका के साथ-साथ पूरे सिस्टम का भी दोष है। पुलिस व अभियोजन भी इसमें बराबर शामिल है। पैसा, राजनीतिक रसूख व बाहुबल से इन्हें भी प्रभावित किया जाता है। मुख्तार तो सिर्फ एक बानगी है। अभी भी पूर्वांचल में अनेक बाहुबली खुलेआम राजनीति का चोला धारण कर खुलेआम घूम रहे हैं। कई तो जनप्रतिनिधि भी बन चुके हैं। तमाम बहस के बाद भी राजनीति में अपराधियों को रोकने का कारगर कानून आज तक नहीं बन सका। अब तो ऐसा लगता है पूर्वांचल की राजनीति में अपराधियों के वर्चस्व व दखल को आम जनता ने भी नियति मान कर स्वीकार कर लिया है।