(अजीत सिंह)
गाजीपुर (काशीवार्ता)। लखनऊ और दिल्ली का सियासी रास्ता यूपी के पिछड़े गलियारों से ही होकर गुजरता है। यही कारण है कि वर्ष 2014 से लेकर 2022 तक चार चुनाव जीतकर प्रदेश और केंद्र की सियासत की बादशाह बन चुकी भाजपा की चाल में पिछड़ों के हीरो बनने वाले अखिलेश यादव फंस गए। भाजपा ने निकाय चुनाव को लेकर ऐसा सियासी तानाबाना बुना की विपक्षी पार्टियां बेचैन हो गईं। पिछड़ों को आरक्षण का लाभ दिए बगैर निकाय चुनाव कराने के हाईकोर्ट के फैसले ने एक तरह से यूपी की सियासत में घी डाल दिया। यह सियासी घी अब आग का गोला बन गया है। हाईकोर्ट के फैसले के तुरंत बाद एक्शन में आई भाजपा ने पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन करके छह माह में रिपोर्ट मांग ली यानि अब छह माह बाद ही निकाय चुनाव होंगे। आयोग का गठन एक तरह से भाजपा के लिए जहां पिछड़ों की सियासत में मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है वहीं सपा की पिछड़ों की राजनीति पर पानी फिर गया। क्योंकि देने के लिए भाजपा के सिवाय किसी पार्टी के पास कुछ नहीं है।
यूपी की सियासत की मास्टर चाभी हथिया चुकी भाजपा ने निकाय चुनाव के दौरान जो सियासी भूल की वह एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा था। निकाय चुनाव और पिछड़ों की अनदेखी करना और सपा का भाजपा पर आरोप लगाना किसी को पच नहीं रहा है। जो भाजपा गैर यादव को छोड़ पिछड़ी जातियों के बूते दो बार प्रदेश एवं दो बार केंद्र की सत्ता में आसीन हुई, वह इतनी बड़ी भूल कैसे कर सकती है। भाजपा के सूत्रों की मानें तो मैनपुरी लोस उप चुनाव जीतने के बाद सपा काफी उत्साहित थी और गैर यादव और अति पिछड़ी जातियों को अपने पाले में करने के लिए अखिलेश गेम करने वाले थे, इसकी भनक लगते ही भाजपा ने तुरूप का पत्ता फेंकने हुए संवैधानिक रूप से बढ़त बना ली और पिछड़ों की सियासत करने वाली पार्टियां एक तरह से बेचैन हो गईं। अब भाजपा पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि भाजपा पिछड़ा विरोधी है। सवाल उठता है कि भाजपा के सिवाय पिछड़ों को अभी तक कौन खैरात बांटेगा। भाजपा ने पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के जख्मों पर आरक्षण का मरहम लगाते हुए पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन कर दिया। यह आयोग सामाजिक एवं आर्थिक आधार पर आरक्षण का पैमाना जांचेगा और छह माह में अपनी रिपोर्ट योगी सरकार को सौंपेगा। आखिर अब यह सवाल उठता है कि कौन कौन जातियां हैं जो आगामी लोकसभा चुनाव में सपा, भाजपा और बसपा के साथ ही कांग्रेस को सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचा सकती है। गौरतलब है कि यूपी में गैर-यादव ओबीसी जातियों के पास ही सत्ता की चाभी मानी जाती है। कुर्मी-पटेल 7 फीसदी, कुशवाहा-मौर्या-शाक्य-सैनी 6 फीसदी, लोध 4 फीसदी, गड़रिया-पाल 3 फीसदी, निषाद-मल्लाह-बिंद-कश्यप-केवट 4 फीसदी, तेली-शाहू-जायसवाल 4, जाट 3 फीसदी, कुम्हार/प्रजापति-चौहान 3 फीसदी, कहार-नाई- चौरसिया 3 फीसदी, राजभर-गुर्जर 2-2 फीसदी हैं। इन्हीं जातियों के बूते सपा और बसपा सत्ता में आती रहीं। मगर बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी जातियों को साधकर सूबे में अपना सियासी बनवास खत्म किया और यूपी की सत्ता हथिया ली। सियासत के जानकार मानते हैं कि चार चुनाव वर्ष 2014 से 2022 तक जीतने वाली भाजपा ने गैर यादव पिछड़ी जातियां और दलित, जाटव को छोड़कर गैर दलित को अपने पाले में करने के बाद सपा को सत्ता से दूर कर दिया। साथ ही राजपूत, ब्राम्हण और बनिया हमेशा से भाजपा के लिए सोने में सुहागा का काम करते रहे। वहीं मुस्लिम वोटर भाजपा को सियासी रूप से मात देने वाली पार्टियां का साथ देते रहे। यही वजह रही कि यूपी की सियासत में ओमप्रकाश राजभर और ओबैसी की पार्टी की इंट्री कराकर भाजपा ने एक तरह से सपा को खत्म करने की बड़ी साजिश रच दी। वहीं बसपा के सामने चंद्रशेखर आजाद को खड़ाकर दलित वोटों में बिखराव कराकर मायावती को शांत कर दिया। जाट बिरादरी में भूपेंद्र चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर जयंत चौधरी की सियासत चौपट करने की बड़ी कोशिश की है। इन तमाम वजहों से से हर चुनाव में मुस्लिम वोट बंटता चला गया और भाजपा मजबूत होती रही। भाजपा की गैर ओबीसी की अंक गणित 2024 के लोकसभा चुनाव में 60 सीटों से आगे निकल जाए तो इसमें हैरान किसी को नहीं होना चाहिए।