महाराष्ट्र में औरंगाबाद ज़िले के कपास के काश्तकार दिनेश कुलकर्णी अपने 50 प्रतिशत कपास उत्पादन की बिक्री न होने के कारण हताश हैं.
वो कहते हैं, “पिछले साल बारिश का मौसम काफ़ी लंबा चला और इस साल महामारी शुरू होने के कारण मेरा पिछले साल का कपास पूरा नहीं बिक सका.”
दिनेश कुलकर्णी की तरह कपास के हज़ारों किसानों का उत्पादन पूरी तरह से मंडी से उठ भी नहीं पाया. खुले बाज़ार में मांग कम है और दाम ज़्यादा.
वहीं, महामारी के कारण सरकार भी एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) के अंतर्गत न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) के हिसाब से अपने कोटे का हिस्सा ख़रीद नहीं सकी.
कपास के किसानों के लिए ये एक संकट का समय है और ऊपर से हाल में भारत सरकार ने तीन विवादास्पद कृषि सुधार क़ानून पारित किए हैं, जिसके विरोध में धान और गेहूं उगाने वाले किसान पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सड़कों पर उतर आए हैं. कृषि क़ानूनों को लेकर ये किसान केंद्र सरकार से नाराज़ हैं.
आंदोलन केवल उत्तर भारत में ही क्यों?
लेकिन खेती में हो रहे नुक़सान को बाद भी दिनेश कुलकर्णी और उनके राज्य के किसान सड़कों पर क्यों नहीं उतरे? उनके राज्य में विरोध प्रदर्शन न के बराबर क्यों है?
इसके जवाब में दिनेश कुलकर्णी कहते हैं कि नए क़ानूनों के कुछ पहलुओं का विरोध उनके राज्य के किसान भी कर रहे हैं लेकिन सड़कों पर उतर कर नहीं बल्कि सरकार से बातचीत के ज़रिए.
उन्होंने बताया, “हम पाँच जून से केंद्र सरकार से लगातार बातचीत कर रहे हैं. सरकार ने क़ानून पारित कर दिया, हमारी बात अब तक नहीं मानी है लेकिन हम मायूस नहीं हुए हैं.”
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लाखों किसानों की सदस्यता वाले भारतीय किसान संघ के सदस्य दिनेश कुलकर्णी ये स्वीकार करते हैं कि किसानों के मसले उत्तर भारत और पश्चिमी-दक्षिण भारत में एक जैसे हैं.
वो कहते हैं, “किसानों की समस्या हर जगह एक जैसी है. केंद्र और राज्य की सरकारें एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) के अंतर्गत जो हमारे उत्पादन खरीदती हैं वो पूरे देश में इसका औसत 10 प्रतिशत ही होता है. बाक़ी 90 प्रतिशत किसानों को खुले बाज़ार में डिस्ट्रेस सेल (मजबूरी में बेचना) पड़ता है.”
कुलकर्णी के अनुसार खुले बाज़ार में जो ख़रीदार (व्यापारी और कंपनी) आते हैं, वो किसानों का शोषण करते हैं. इसलिए किसानों की समस्या हर जगह समान है. वो ये भी मानते हैं कि नए क़ानून से उत्तर भारत के किसानों को अधिक नुक़सान उठाने की आशंका पैदा हो सकती है.
…इसलिए पंजाब में स्थिति अलग है
एपीएमसी के अंतर्गत सरकार की तरफ़ से पहले से तय हुए दाम में ख़रीददारी का राष्ट्रीय औसत 10 प्रतिशत से कम है, लेकिन इसका उलट पंजाब में 90 प्रतिशत से अधिक है.
हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उपजाऊ ज़मीनों पर उगने वाले अनाज को राज्य सरकारें एपीएमसी की मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) देकर किसानों से ख़रीद लेती हैं. इसका मतलब खुले बाज़ार में केवल 10 प्रतिशत उत्पादन की बिक्री की गुंजाइश रह जाती है.
दूसरी तरफ़, देश के लगभग 6,000 एपीएमसी में से 33 फीसदी अकेले पंजाब में ही हैं.
नए कृषि क़ानून के तहत पंजाब का कोई किसान अपने उत्पादन को खुली मंडी में अपने राज्य या राज्य से बाहर कहीं भी बेच सकता है. लेकिन विरोध करने वाले छोटे किसान कहते हैं कि वो एपीएमसी के सिस्टम से बाहर जा कर अपना माल बेचेंगे तो प्राइवेट व्यापारी उनका शोषण कर सकते हैं.
इसीलिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान एपीएमसी को हटाना नहीं चाहते.
हर राज्य में खेती का अलग सिस्टम
केरल में सीपीआई(एमएल) के एक पूर्व विधायक कृष्णा प्रसाद, ऑल इंडिया किसान सभा के वित्तीय सचिव हैं. वो दिल्ली में हैं और क़ानून के विरोध में पूरी तरह से शामिल हैं.
हमने उनसे पूछा कि किसानों की इतनी ज़बरदस्त नाराज़गी पंजाब और हरियाणा में ही क्यों दिख रही है? पश्चिम और दक्षिण राज्यों में क्यों नहीं?
इस पर उनका कहना था, “हरित क्रांति के कारण कृषि और आर्थिक सिस्टम सभी प्रांतों में अलग-अलग हैं. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दो ख़ास अनाज उगाये जाते हैं- धान और गेहूं.”
“देश के 6,000 एपीएमसी मंडियों में से 2,000 से अधिक केवल पंजाब में है. इस सिस्टम के अंतर्गत यहाँ के किसानों को गेहूं और चावल के दाम बिहार, मध्य प्रदेश और दूसरे कई राज्यों से कहीं अधिक मिलते है. इस सिस्टम के अंतर्गत सरकार किसानों को न्यूनतम सपोर्ट दाम देने के लिए बाध्य है.”
कृष्णा प्रसाद कहते हैं कि इन किसानों को डर इस बात का है कि अब नए क़ानून के तहत एपीएमसी को निजी हाथों में दे दिया जाएगा और सरकार के फ़ूड कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया (एफसीआई) जैसे गल्ला गोदामों का निजीकरण कर दिया जाएगा.
छोटे किसानों की हालत सबसे ख़राब
दरअसल, देश भर में कुल किसानों की आबादी में छोटे किसानों का हिस्सा 86 प्रतिशत से अधिक है और वो इतने कमज़ोर हैं कि प्राइवेट व्यापारी उनका शोषण आसानी से कर सकते हैं.
देश के किसानों की औसत मासिक आय 6,400 रुपये के क़रीब है. किसान कहते हैं नए क़ानूनों में उनकी आर्थिक सुरक्षा तोड़ दी गयी हैं और उन्हें कॉर्पोरेट के हवाले कर दिया गया है.
कृष्णा प्रसाद कहते हैं कि नए कृषि क़ानून में दो ऐसी बातें हैं, जिनसे भारत में कृषि और किसानों का भविष्य अंधकार में पड़ता दिखाई देता है.
वो कहते हैं, “ये एपीएमसी और कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग या ठेके पर की जाने वाली खेती सबसे घातक है. कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ एक तालुका या गांव के सभी किसानों की ज़मीने ठेके पर ले सकती हैं और एकतरफ़ा फ़ैसला कर सकती हैं कि कौन-सी फ़सल उगानी है. किसान इनके बंधुआ मज़दूर बन कर रह जाएँगे.”
कृष्णा प्रसाद के मुताबिक़, “सरकार ने नए क़ानून लाकर कृषि क्षेत्र का निगमीकरण करने की कोशिश की है और इसे भी ‘अंबानी-अडानी और मल्टीनेशनल कंपनियों के हवाले’ कर दिया है.”
वो कहते हैं, “समझने की बात ये है कि निजी कॉर्पोरेट कंपनियां जब आएँगी तो उत्पाद में मूल्य संवर्धन करेंगी, जिसका लाभ केवल उन्हें होगा. छोटे किसानों को नहीं. आप जो ब्रैंडेड बासमती चावल खरीदते हैं वो मूल्य संवर्धन के साथ बाज़ार में लाए जाते हैं.”
“किसान को एक किलो के केवल 20-30 रुपये ही मिलेंगे लेकिन मार्किट में वो मूल्य संवर्धन के बाद 150 रुपये से लेकर ब्रैंड वाले बासमती चावल का दाम 2,200 प्रति किलो तक जा सकता है. लेकिन बेचारे ग़रीब किसान को एक किलो के केवल 20 रुपये ही मिल रहे हैं.”
भारत के कुछ राज्यों में कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग का रिवाज़ नए क़ानून के पारित किये जाने से पहले से मौजूद है और कृषि के निजीकरण के उदाहरण भी मिलते हैं. लेकिन अभी ये बहुत छोटे पैमाने पर है.
केरल मॉडल सबसे बढ़िया?
केरल के एक किसान नारायण कुट्टी ने हमें बताया कि उनके राज्य में किसान 50-60 की संख्या में कुछ जगहों पर प्रदर्शन ज़रूर कर रहे हैं लेकिन अधिकतर किसानों ने नए क़ानून का समर्थन किया है.
वो कहते हैं, “केरल में 82 प्रतिशत कोऑपरेटिव्स हैं और वहाँ किसान इस मॉडल को पसंद करते हैं.”
असल में केरल में खेती की सब से अच्छी मिसाल छोटी किसान महिलाओं के कोऑपरेटिव्स में मिलती है, जिसे राज्य में कुदुम्बश्री के नाम से जाना जाता है. इसे राज्य सरकार ने 20 साल पहले शुरू किया था.
आज इस योजना में चार लाख के क़रीब महिला किसान शामिल हैं जो 14 ज़िलों में 59,500 छोटे समूहों में विभाजित की गई हैं. ये सब्ज़ी, धान और फल उगाती हैं. चार से 10 सदस्यों का एक समूह होता है जो उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा मंडी में या तो सरकार को बेच देता है या खुली मंडी में.
केरल के कृषि मंत्री सुशील कुमार ने जुलाई में राज्य के कृषि मंत्रिओं की एक कॉफ़्रेंस में दावा किया था कि कॉर्पोरेट द्वारा कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग के बजाय उनका राज्य सहकारी समितियों और सामुदायिक नेटवर्क द्वारा सामूहिक खेती को बढ़ावा दे रहा है, जिसके बहुत अच्छे नतीजे सामने आ रहे हैं.
राजनीति या किसानों के असल हमदर्द?
भारतीय जनता पार्टी के सूत्रों का दावा है कि किसानों का आंदोलन पंजाब तक सीमित इसलिए है कि राज्य में कांग्रेस की सरकार है और कांग्रेस इस आंदोलन को स्पॉन्सर कर रही है.
वो कहते हैं, “कांग्रेस सिर्फ़ सियासत कर रही है. हम जो क़ानून लेकर आये हैं, वो कांग्रेस पार्टी के 2019 के चुनावी घोषणा पत्र में आपको मिल जाएगा. पंजाब सरकार केंद्रीय कृषि बिल को नकारने के लिए अलग क़ानून लाई है, जो उनके अनुसार किसानों की मांगों को पूरा करता है. तो अब आंदोलन किस बात का?”
महाराष्ट्र के किसान दिनेश कुलकर्णी और केरल के किसान नारायण कुट्टी से बातें करके समझ में आया कि उन्हें भी आंदोलन के पीछे कांग्रेस पार्टी का हाथ लगता है.
हालाँकि केरल के पूर्व विधायक कृष्णा प्रसाद कहते हैं कि सियासत बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियाँ कर रही हैं. उनके अनुसार जब मोदी जी विपक्ष में थे तो उनकी पार्टी ने कांग्रेस सरकार के ऐसे प्रस्तावों का कड़ा विरोध किया था और अब सत्ता में आकर उन्होंने कांग्रेस के ही प्रस्तावों को लागू कर दिया है तो अब कांग्रेस परेशान हो रही है.
कृष्णा प्रसाद का कहते हैं, “सच तो ये है कि केवल मोदी जी की आलोचना करना सही नहीं है. कृषि क्षेत्र का निगमीकरण कांग्रेस पार्टी ने 1991 में ही शुरू कर दिया था.”