शरणार्थी तिब्बती समुदाय में अब उठने लगी गम व व्यथा की गंध


(युगल किशोर जालान)
वाराणसी (काशीवार्ता)। बुद्ध पूर्णिमा पर भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के संबोधन से देश में रह रहे शरणार्थी तिब्बती समुदाय में गम और व्यथा की गंध उठने लगी है। वाराणसी में भी सारनाथ सहित विभिन्न इलाकों में रह रहे शरणार्थी अपनी मातृभूमि तिब्बत की स्वतंत्रता का स्वप्न देखते रहते हैं। यह एक ऐसा रोमांचक सपना है जिसे तिब्बत की निष्कासित सरकार शायद ही कभी पूरा कर सके।
तिब्बत के लाल झंडे तले आते ही दस हजार से भी अधिक तिब्बतियों ने 61 वर्ष पूर्व अपने राष्ट्राध्यक्ष दलाई लामा के साथ भारत में शरण ले ली थी। इसी के साथ नेपाल के रास्ते तिब्बतियों का भागकर भारत आने का क्रम शुरू हो गया था। वर्तमान में भारत में रह रहे शरणार्थी कहे जाने वाले लाखों तिब्बतियों में से 85 फीसदी से अधिक ने कभी भी अपनी मातृभूमि तिब्बत में एक श्वांस भी नहीं ली है, फिर भी इनके सीने में स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना एक चिन्गारी के रूप में सुलगती रहती है।
चीन से सीमा विवाद के समय बुद्ध पूर्णिमा पर देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के उद्बोधन से शरणार्थी तिब्बतियों को महसूस हुआ है कि भारत सरकार कूटनीति के तहत इस वर्ष 6 जुलाई को जन्मदिन के अवसर पर चौदहवे दलाईलामा तेनजिन ग्यात्सो को कुछ विशेष सम्मान देगी। चौदहवे दलाई लामा को बुद्ध की करुणा का अवतार माना जाता है। पिछले दिनों सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के एक खेमें ने दलाई लामा को ‘भारत रत्न’ अंलकरण से सम्मानित करने तक का सुझाव भी दे दिया था। माना जा रहा है है कि ‘भारत रत्न’ सम्मान देने से चीन जरूरत से ज्यादा बौखला जाएगा शेष पृष्ठ 5 पर
इसलिये सरकारी स्तर पर पुष्पों के साथ दलाई लामा को जन्मदिन की बधाई भेजी जा सकती है।
आठवीं शताब्दी में भारतीय तंत्रग्यानी बौद्ध उपदेष्टा भगवान पद्मसंभव ने हिमालय के उस पार के देश तिब्बत जाकर, वहां बौद्ध धर्म की तान्त्रिक शाखा की स्थापना की थी। यह धर्मं ही तिब्बत का पर्यायवाची बन गया। विश्व युद्ध के बाद, वर्ष 1950 के अक्टूबर महीने में, चीन में साम्यवादी सत्ता में आये और चीनी जनवादी गणतंत्र की सेना तिब्बत में घुस गयी थी। उस समय मात्र 15 वर्षीय चौदहवे दलाई लामा के कंधों पर तिब्बत के शासन और सुरक्षा का भार था। इस समय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राष्ट्राध्यक्षो का ध्यान भारत-चीन सीमा विवाद पर केन्द्रित है। इस बीच भारत में शरणार्थी जीवन व्यतीत कर रहे तिब्बत के निर्वासित राष्ट्राध्यक्ष, चौदहवे दलाई लामा, बौद्ध धर्मावलम्बियों के आध्यात्मिक गुरु तेनजिन ग्यात्सो एक बार फिर अपने आध्यात्मिक प्रवचनों से सुर्खियों में है। तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद 10 मार्च 1959 को दलाई लामा को ल्हासा छोडकर भारत में शरण लेनी पड़ी थी। उसी समय यह तय हुआ था कि दलाई लामा भारत में रहते हुए किसी भी प्रकार का राजनीतिक बयान नहीं देंगे। तिब्बत को अपने कब्जे में लेने के पीछे चीन का उद्देश्य यही था कि वह भारत की सीमा पर अपनी सेना तैनात कर सके। तिब्बत को हथियाने के पहले भारत-चीन सीमा नाम की कोई अंतर्राष्ट्रीय सीमा थी ही नहीं। चीन और भारत के बीच तिब्बत था। ऐसी ही स्थिति नेपाल की भी है। नेपाल भी भारत-चीन के बीच स्थित है, इसीलिए तिब्बत के बाद अब चीन की नजर नेपाल पर है। चौदहवें दलाई लामा ने 61 वर्षों से भारत में रहते हुए अपना जीवन मानवीय और पर्यावरणीय, वैश्विक शांति और बहुत कुछ करने की दिशा में समर्पित किया है। उन्होंने द बेस्ट आॅफ हैपीनेस, द बुक आॅफ जॉय सहित कई सर्वश्रेष्ठ पुस्तकें लिखी हैं, और 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार सहित कई सम्मानों से सम्मानित हो चुके है।
शासन की बागडोर छोडकर भारत भागकर आने वाले ये दूसरे दलाई लामा है। इनके पूर्व सन् 1910 में भी तेरहवें दलाई लामा क्षुपतेन ग्यात्सो भी ल्हासा छोडकर भारत भाग आये थे। उस समय तिब्बत के पूर्वी भाग पर अधिकार कर जब चीनी सेनाएं ल्हासा की ओर बढने लगी थी तब तेरहवें दलाई लामा भारत भाग आये थे। अहिंसावादी देश होने के कारण तिब्बत में कभी भी सेना नहीं थी। वर्ष 1911 में तिब्बतियों ने चीनी शासन के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की तब 1912 में चीन के दबाव से तिब्बत मुक्त हुआ और तेरहवें दलाई लामा अपनी मातृभूमि ल्हासा लौटे।