ब्रिटेन के नेशनल ट्रस्ट ने एक नई रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक़ उसकी क़रीब 300 में से 93 संपत्तियों का संबंध ग़ुलामों के व्यापार और औपनिवेशिक विस्तार से है.
चैरिटी ने ये अध्ययन सितंबर 2019 में शुरू करवाया था. जिसका मक़सद उन ऐतिहासिक स्थलों के ब्रितानी औपनिवेशिक और ग़ुलामी के इतिहास को बताना था, जो आज पूरे ब्रिटेन के लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं.
नेशनल ट्रस्ट एक संरक्षण चैरिटी संस्था है, जो इंग्लैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड में स्थित संपत्तियों का प्रबंधन करती है. स्कॉटलैंड के लिए एक अलग और स्वतंत्र नेशनल ट्रस्ट है.
नेशनल ट्रस्ट के क्यूरेटोरियल और कलेक्शन डायरेक्टर डॉ. टरनेयर कूपर रिपोर्ट के बारे में कहते हैं, “जो इमारतें नेशनल ट्रस्ट के संरक्षण में हैं वो अलग-अलग दौर और ब्रितानी एवं वैश्विक इतिहास – सामाजिक, औद्योगिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक को बयां करती हैं.
“हमारे संरक्षण वाली इन इमारतों में से कई का संबंध दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के औपनिवेशीकरण से है. जबकि कुछ का ऐतिहासिक ग़ुलामी से. औपनिवेशवाद और ग़ुलामी, 17वीं से 19वीं सदी के बीच राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के केंद्र में रहे थे.”
चैरिटी का कहना है कि कुछ कड़ी प्रतिक्रियाओं के बावजूद वो ग़ुलामी और औपनिवेशवाद के इतिहास को साझा करने के लिए प्रतिबद्ध है.
हालांकि 115 पन्नों की ये रिपोर्ट पूरी नहीं है. साथ ही ट्रस्ट ने कहा कि उसे और काम करने की ज़रूरत है और वो इस विषय पर और रिसर्च करेगा.
ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटेन की समृद्धि
रिपोर्ट में ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों और कर्मचारियों के बारे में जानकारी दी गई है, जिन्हें अक्सर स्वदेश लौटने पर ‘नवाब’ कहा जाता था. इन्होंने भारत से की गई अपनी औपनिवेशिक कमाई से स्वदेश लौटकर बहुत संपत्ति बनाई. साथ ही कुछ लोगों ने ग़ुलामों के व्यापार से की कमाई से ब्रिटेन में बड़ी संपत्तियां ख़रीदीं.
इसमें ये देखने की कोशिश की गई है कि ब्रिटेन के घरों पर ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों और उनके परिवारों का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव क्या पड़ा.
इसके अलावा अध्ययन में उनके राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पर भी बात की गई है. जिसमें मौटे तौर पर 1757 से लेकर 1857 तक का ज़िक्र है. यानी 1757- जब रॉबर्ट क्लाइव ने ज़्यादातर भारत को अपने अधीन कर लिया था, से लेकर 1857 – जब भारत में विद्रोह हुआ था.
इसे भारत की स्वतंत्रता के लिए पहला संघर्ष भी कहा जाता है. जिसके चलते भारत में कंपनी का शासन ख़त्म हुआ और ब्रिटिश राज की शुरुआत हुई.
250 से ज़्यादा सालों तक ईस्ट इंडिया कंपनी (ईआईसी) ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक वैश्विक व्यापार नेटवर्क का नेतृत्व किया और इसकी स्थापना भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और चीन में व्यापारिक अवसरों को ढूंढने और डच और बाद में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए की गई थी.सर थॉमस एक ख़ास मिशन पर भारत आए थे. उनकी कोशिश थी कि एक छोटी सी ब्रिटिश कम्पनी को भारत में व्यापार का अधिकार हासिल हो जाए
इसके निदेशक लंदन से काम पर नज़र रखते थे और ये कंपनी दुनिया की सबसे शक्तिशाली कंपनियों में से एक बन गई. ब्रिटेन में कम से कम 229 संपत्तियां उन लोगों ने ख़रीदी थीं, जो या तो कंपनी के कर्मचारी थे या 1700 से 1850 के बीच भारत में स्वंतंत्र व्यापारी रहे. रिपोर्ट के मुताबिक़, “बार्कशर में ईस्ट इंडिया कंपनी के इतने लोग रहते थे कि उस वक़्त इसे इंग्लिश हिंदुस्तान कहा जाने लगा.”
और नेशलन ट्रस्ट इस वक़्त जिन संपत्तियों की रखवाली करती है, उनमें से कम से कम 50 का संबंध ईस्ट इंडिया कंपनी से था. इनमें से कुछ के बारे में नीचे पढ़ सकते हैं.
सरी का क्लेरमॉन्ट एस्टेट
रॉबर्ट क्लाइव जिन्हें ‘भारत का क्लाइव’ भी कहा जाता है, वो कंपनी के सबसे लोकप्रिय कर्मचारियों से एक थे. नेशनल ट्रस्ट की दो संपत्तियों से उनके नज़दीकी संबंध है. जिसमें क्लेयरमॉन्ट एस्टेट और पॉविस कासल शामिल हैं. वो 1744 से लेकर 1767 तक कंपनी में काम करते थे. क्लाइव ने भारत से जो कमाया था उससे क्लेयरमॉन्ट एस्टेट ख़रीदा था. उन्होंने वहां एक नया घर बनाया.
रिपोर्ट के मुताबिक़, “रॉबर्ट क्लाइव जैसे कंपनी के लोग, जिन्होंने ईआईसी के नाम पर ज़्यादातर भारतीय उपमहाद्वीप को अपने अधीन कर लिया था, उन्होंने ज़मीन और संपत्ति में निवेश किया था.”
वेल्स का पॉविस कासल और गार्डन
क्लाइव के बेटे एडवर्ड और उनकी पत्नी लेडी हेनरिटा हर्बर्ट ने 1600 से 1830 के बीच की एक हज़ार वस्तुओं का बड़ा कलेक्शन जमा किया, जिनका अब पॉविस कासल में प्रदर्शन किया जाता है. इनमें भारत और पूर्वी एशिया से लाए गए हाथी दांत, वस्त्र, हिंदू देवताओं की मूर्तियां, सजावटी चांदी और सोना, हथियार और औपचारिक कवच शामिल हैं.
वार्विकशायर का चार्लकोट पार्क
नेशनल ट्रस्ट की संपत्तियों में कुछ ऐसी चीज़ें देखने को मिल सकती हैं, जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी ने कमिशन किया था, साथ ही वो चीज़ें जिन्हें उसने भारत से ले लिया था. इनमें चार्लकोट पार्क में रखी अठारहवीं सदी की सिल्वर ड्रेस, तलवार और खुरपी शामिल है.
इसमें फ़िरोज़ा और गार्नेट पत्थर लगे हैं, इसका हत्था बाघ के सिर के आकार का है. माना जाता है कि 1857 में सितंबर में लखनऊ में हुई घेराबंदी के बाद मेजर-जनरल चार्ल्स पावलेट लेन ने इसे ले लिया था, उन्होंने इसे अपनी सास को दे दिया था.
स्टैफ़र्डशायर में शुगबोर एस्टेट
1857 में, शासन की एक सदी के बाद, भारतीय आबादी के बड़े हिस्से ने ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह करना शुरू कर दिया था.
इसे भारत में पहले स्वतंत्रता संग्राम या भारतीय विद्रोह के रूप में देखा जाता है या 1857 के भारतीय विद्रोह कहा जाता है. और एक वक़्त शुगबोर एस्टेट के मालिक रहे मेजर-जनरल जॉर्ज अनसन, 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान भारत के कमांडर-इन-चीफ थे. अब नेशनल ट्रस्ट शुगबोर एस्टेट का रखरखाव करता है.
डर्बीशायर में केडलस्टन हॉल
नेशनल ट्रस्ट की एक अन्य संपत्ति केडलस्टन हॉल है, जो जॉर्ज नैथनियल कर्जन से संबंधित है, जो 1891 में भारत के लिए अंडर सेक्रेटरी ऑफ द स्टेट थे और 1899 से 1905 तक वायसराय के रूप में कार्य किया.
हालांकि कर्जन ने कुछ सकारात्मक सुधार भी किए, उन्होंने सरकार में भारतीय राष्ट्रवादियों की अधिक भागीदारी की मांगों का विरोध किया. 1899-1900 के दौरान एक बड़ा अकाल भी पड़ा था, उस वक़्त कर्जन भारत का वायसराय थे. इसमें लगभग दस लाख लोग मारे गए थे और कर्जन की इस बात को लेकर आलोचना की गई थी कि उन्होंने अकाल से निपटने के लिए कम कोशिशें कीं.
केन्ट का चार्टवेल
चार्टवेल सर विंस्टन चर्चिल का परिवारिक घर है. ये भी नेशनल ट्रस्ट की संपत्ति है. विंस्टन चर्चिल 1921 से 1922 तक कॉलोनियों के लिए सेकेट्री ऑफ स्टेट थे. वो 1943 में बंगाल के विनाशकारी अकाल के दौरान प्रधानमंत्री थे, जिससे निपटने में नाकाम रहने माने जाने पर ब्रिटेन की भारी आलोचना हुई थी. उन्होंने भारत की स्वतंत्रता का भी विरोध किया था.
इस सूची में बेटमैन्स भी शामिल है जो 1902 से लेकर 1936 तक लेखक रडयार्ड किपलिंग का घर था. किपलिंग को 1907 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था, उन्हें “द जंगल बुक” जैसे कथा साहित्य के कामों के लिए जाना जाता है.
लेकिन वो साम्राज्यवाद के लिए एक प्रभावशाली क्षमायाचक भी थे, जैसा कि उन्होंने अपनी कविता ‘द व्हाइट मेंस बर्डन’ में लिखा है, जिसमें सुझाव मिलता है कि गोरे लोगों की ये नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वो दूसरी नस्ल के लोगों के देशों को सभ्य बनाएं.
इस रिपोर्ट में उन लोगों की नेशनल ट्रस्ट संपत्तियो का भी ज़िक्र है जो उन्मूलन आंदोलन या औपनिवेशिक उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ाई में शामिल थे. इसमें अंग्रेज़ी और वेल्श जागीरों में काम करने वाले अफ्रीकी, एशियाई और चीनी मूल के लोगों का भी ज़िक्र है.
ये रिपोर्ट क्यों तैयार करवाई गई है?
यूनिवर्सिटी ऑफ़ लेस्टर की प्रोफ़ेसर और इस रिपोर्ट की सह-लेखिका कोरीन फाउलर ने बीबीसी को बताया कि उन्होंने पहली बार बच्चों के नेतृत्व में औपनिवेशिक काल की जड़ें तलाशने के प्रोजेक्ट का ये विचार नेशनल ट्रस्ट को साल 2017 में दिया था.
‘ग्रीन अनप्लेज़ेंट लैंड’ नाम की किताब के लिए बड़े घरों पर एक अध्याल लिखते समय उन्हें सबसे पहले ये विचार आया था. वो कहती हैं, “मैं इन विशाल घरों के औपनवेशिक काल से संबंधों की गहराई और विविधता को देखकर हैरत में थीं. इन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी एट होम और लीगेसी ऑफ़ ब्रिटिश स्लेव ऑनरशिप रिसर्च प्रोजेक्ट में भी रेखांकित किया गया है.” नेशनल ट्रस्ट ने सितंबर 2019 में इस रिपोर्ट को तैयार करने की अनुमति दे दी थी.
वो कहती हैं, ‘जब मैंने देखा कि ये संबंध कितने गहरे और व्यापक हैं तो मैं व्यक्तिगत तौर पर हैरान रह गई. ये बहुत विविध हैं, ईस्ट इंडिया की कंपनी की भूमिका से लेकर, औपनिवेशिक प्रशासन, रॉयल अफ्रीकन कंपनी में निवेश या द साउद सीज़ कंपनी में निवेश या उन बाग़ानों में निवेश जिनमें अफ्रीकी ग़ुलामों से काम करवाया जाता था.’
लेकिन प्रोफ़ेसर फाउलर कहती हैं कि जब तीन साल पहले उन्होंने पहली बार ये विचार नेशनल ट्रस्ट के सामने पेश किया था तब ब्लैक लाइव्स मैटर अभियान उनकी रिपोर्ट की प्रेरणा नहीं था.
ब्रिटेन में ब्लैक लाइव्स मैटर अभियान से जुड़े लोगों ने उन लोगों की मूर्तियां हटाने की मांग की है जिनका संबंध ग़ुलामी प्रथा या नस्लवाद से जु़ड़ा रहा है. ग्रेटर मेंचेस्टर में नेशनल ट्रस्ट की एक संपत्ति के बाहर लगी एक काले व्यक्ति की मूर्ति को हटा दिया गया है. इसमें काले व्यक्ति को सर पर सनडायल रखे दिखाया गया था जिसे काले लोगों के प्रति अपमानजनक माना गया है.
रिपोर्ट पर कैसी प्रतिक्रियाएं आई हैं?
115 पन्नों की इस रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद से कई नकारात्मक प्रतिक्रियाएं भी आई हैं और इस रिपोर्ट का विरोध भी हुआ है. कई लोगों ने नेशनल ट्रस्ट पर इतिहास को फिर से लिखने का आरोप भी लगाया है. कुछ लोगों का ये भी कहना है कि नेशनल ट्रस्ट का काम ब्रितानी इतिहास से जुड़े लोगों संरक्षित करना है न कि उसके हीरो को विलेन बनाना.
ब्रिटेन के संस्कृति मंत्री ओलिवर डाउडेन ने पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के आवास को ग़ुलामी प्रथा और औपनिवेशिक काल से जोड़ने के नेशनल ट्रस्ट के निर्णय की आलोचना की है. उन्होंने कहा है कि संस्था ने जिस तरह से ब्रिटेन के युद्ध के समय के राजनेता को अपनी संपत्तियों के मूल्यांकन में पेश किया है वो कई लोगों को हैरान और निराश कर सकता है. उन्होंने कहा है कि नेशनल ट्रस्ट को ब्रिटेन के इतिहास और विरासत के संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए.
चर्चिल वॉकिंग विद डेस्टिनी किताब के लेखक एंड्रयू रॉबर्टस ने भी ट्विटर पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है, ‘नेशनल ट्रस्ट का गुलामी प्रथा और औपनिवेशिक काल से जुड़ी संपत्तियों की ब्लेकलिस्ट बनाना दुखद और गलत है.’
कई लोगों ने आरोप लगाया है कि नेशनल ट्रस्ट का राजनीतिकरण हो गया है और इसके विरोध में वो इसका बहिष्कार करेंगे.
हालांकि हर किसी ने इस रिपोर्ट की आलोचना नहीं की है. स्कॉटिश मूल के चर्चित लेखक विलियम डैलरिंपल ने इस शोध का स्वागत किया है और कहा है कि अब वक्त आ गया है जब ब्रिटेन को अपने औपनिवेशिक काल और उस दौरान किए गए ज़ुल्म को स्वीकार करना चाहिए.
बीबीसी से बात करते हुए डैलरिंपल ने कहा कि ये नेशनल ट्रस्ट की ये रिपोर्ट ब्रिटेन के लिए एक अच्छा क़दम है. ब्रिटेन ने औपनिवेशिक काल के अंत में पहुंचकर ब्रितानी साम्राज्य को भुला दिया था और जानबूझकर उसे अटारी में डाल दिया था.
डेलरिंपल कहते हैं, “उन्होंने इसे अपने पाठ्यक्रम से हटा दिया है, अब स्कूलों में ये नहीं पढ़ाया जाता है और इससे जुड़ी तस्वीरों को राष्ट्रीय संग्रहालयों से हटा लिया गया है और अब हमारे देश में बहुत से लोग औपनिवेशिक काल के इतिहास के बारे में नहीं जानते हैं. हम उन युद्ध अपराधों और हिंसा को भूल गए हैं जिनकी वजह से ब्रिटेन को अकूत दौलत मिली थी. अब ब्रितानी लोग इस बारे में नहीं जानते.”
“तीन साल पहले जब मैं पेरिस गया था तो मैंने देखा कि वहां प्लासी से लूट कर लाए गए माल को भारतीय लोगों की ओर से तोहफ़ा बताया गया था. ये दिखाया गया है कि कोलकाता में लोग सड़कों पर निकल आए थे और लॉर्ड क्लाइव के गल में हीरों का हार डाल दिया है. लेकिन ये ज़ाहिर तौर पर ये सच्चाई नहीं है. हमें वास्तविकता को स्वीकार करना होगा और ये जो बहुत बुरे काम हुए उन्हें मानना होगा. हमारे देश में बहुत सी अकूत दौलत ग़लत तरीकों से आई है और अब हमें अपने बच्चों को ये बताना होगा. लेकिन ये काम नेशनल ट्रस्ट को नहीं करना है. लोगों को नेशनल ट्रस्ट की संपत्तियों पर आकर देखना चाहिए कि रॉबर्ट क्लाइव ने क्या किया था.”
डैलरिंपल कहते हैं, “मेरी चिंता ये है कि मैं भारत में रहता हूं और मैं देखता हूं कि यहां आने वाले ब्रितानी ये सोचते हैं कि भारत के लोग उन्हें प्यार करते हैं और ब्रितानी राज उनके लिए बहुत शानदार चीज़ थी. वो नहीं जानते कि यहां क्या क्या हुआ है, ऐसा नहीं है कि उनके मन में दुर्भावना है या वो गलत हैं लेकिन सच ये है कि उन्हें पता ही नहीं है. उन्हें ये पढ़ाया ही नहीं गया है. मुझे लगता है कि ब्रेक्ज़िट के बाद की दुनिया में ये मायने रखता है कि हम अपने कम ज्ञान की वजह से ऐसी बातें न कहें जो लोगों को बुरी लग सकती हैं.”
वहीं नेशनल ट्रस्ट की क्यूरेटर डॉ. टार्नया कूपर कहती हैं कि ये नेशनल ट्रस्ट की ज़िम्मेदारी है कि वो अपनी संपत्तियों के बारे में पूरी जानकारी लोगों को दे.
प्रोफ़ेसर फाउलर कहती हैं कि उनके लिए रिपोर्ट पर आने वाली प्रतिक्रियाओं का अंदाज़ा लगाना मुश्किल था.
वो कहती हैं, पॉलिसी एक्सचेंज का एक ताज़ा शोध बताता है कि नेशनल ट्रस्ट से जुड़े 72 प्रतिशत सदस्य ये मानते हैं कि संस्था को उन संपत्तियों के औपनिवेशिक इतिहास की बात करनी चाहिए जो उसकी देखभाल में हैं. मुख्य विरोध यही है कि हमें इस इतिहास के बारे में बात नहीं करनी चाहिए.”
वो कहती हैं, “अब समय आ गया है जब ब्रिटेन के इतिहास के बारे में परिपक्व बातचीत होनी चाहिए, एक इतिहास जिसे में भारत और दूसरे औपनिवेशिक देशों के साथ साझा करते हैं. ब्रिटेन एक ऐसा देश है जहां हर छह में से एक बच्चे की जड़ें ऐसे देशों से जुड़ी हैं जो कभी ब्रितानी साम्राज्य के अधीन थे. ऐसे में हमें उस इतिहास के बारे में अधिक बात करनी चाहिए जो उन्हें उनके देश से जोड़ता है और ब्रिटेन के इतिहास के बारे में हमारे साझा विचारों को विस्तार देता है. अगर हम अपने इतिहास को, पूरे इतिहास को स्वीकार करते हैं तो हम भविष्य की ओर एकजुट होकर अधिक आरामदायक तरीके से बढ़ सकते हैं.”