(विशेष प्रतिनिधि)
वाराणसी (काशीवार्ता)। ‘कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता,एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों’ दुष्यंत कुमार की उक्त कविता को चरिरतार्थ कर रहे हैं 30 वर्षीय संतोष गुप्ता। पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर संतोष लॉकडाउन से पहले नोयडा की एक कंपनी में काम करते थे। अच्छी खासी तनख्वाह थी। गृहस्थी की गाड़ी ठीक ठाक ढंग से चल रही थी।बनारस में बृद्ध माता पिता को भी पैसे भेजते थे।परन्तु कोरोना का कहर टूटा तो नौकरी जाती रही। लौट के बनारस आये तो किसी विज्ञापन कंपनी में नौकरी कर ली, लेकिन इतने पैसे नहीं मिलते थे कि घर में पत्नी और माता पिता का अच्छे से भरण पोषण हो सके। तब संतोष ने एक साहसिक निर्णय लिया।उन्होंने दक्षिण भारतीय व्यंजनों की एक चलती फिरती दुकान खोली। अपनी मोपेड को ही दुकान में तब्दील कर दिया। दुकान चल निकली। घर में पत्नी सारा सामान तैयार करती है और संतोष सबेरे सबेरे अपनी मोबाइल दुकान लेकर निकल पड़ते हैं। अमूमन वे सिगरा भारत सेवा आश्रम के पास अपनी दुकान लगाते हैं।
शाम तक सारा माल बिक जाता है। अब उन्होंने मडुआडीह स्थित घर पर भी एक दुकान खोल दी है जो पिता जी संभालते हैं। वे बताते हैं कि 10,15 हजार की नौकरी से बेहतर है अपना रोजगार। एमसीए करने के बाद उनके भी ढेर सारे सपने थे जो कोरोना ने तोड़ दिये। लेकिन एक रास्ता बंद हुआ तो दूसरा खुला। संतोष गुप्ता जैसे लोग आधुनिक युवा पीढ़ी के लिये रोल मॉडल हैं। किस तरह बिना किसी झिझक और शर्म के स्वरोजगार किया जा सकता है,संतोष से यह सीखा जा सकता है।