शहर में मौजूद है लगभग 50 हजार बंदर, पकड़ने पर खर्च हो चुके हैं लाखों रुपये


विशेष प्रतिनिधि
वाराणसी(काशीवार्ता)। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने बनारस के बंदरों को पकड़ने का आदेश दिया है। इस बार यह जिम्मेदारी वनविभाग को सौंपी गयी है। आदेश में यह भी कहा है कि बंदरों को उचित देखभाल के साथ जंगलों में छोड़ा जाय। देखा जाय तो अतीत में बंदरों को पकड़ने की अनेक कवायद हो चुकी है। वनविभाग और नगर निगम की तरफ से बंदरों को पकड़ने लिये लाखों रुपये खर्च हो चुके हैं लेकिन शहर में बंदरों की आबादी कम होने का नाम नहीं ले रही। एक मोटे अनुमान के अनुसार शहर में लगभग 50 हजार बंदर मौजूद हैं जो विभिन्न मुहल्लों में आतंक मचाये हुए हैं। संकटमोचन दुर्गा कुंड से लेकर सिगरा महमूरगंज तक बंदरो के सैकड़ों झुंड फैले हुए हैं। अब तो अर्दली बाजार शिवपुर और तरना तक इनका साम्राज्य स्थापित हो चुका है। सर्वाधिक त्रस्त तो पक्के महाल के निवासी हैं। दशास्व्मेघ से लेकर मैदागिन और मदनपुरा से लेकर अस्सी तक के मुहल्ले उत्पाती बंदरों की गिरफ्त में हैं। पिछले दिनों नगर निगम सदन की बैठक में आवारा कुत्तों और उत्पाती बंदरों को पकड़ने के लिये बाकायदा 5 लाख रुपये का फंड भी आवंटित किया गया । इसके तहत कुत्तों और बंदरों की नसबंदी का भी प्राविधान है। अभी यह पता नहीं चल पाया कि कितने बंदरों और कुत्तों की नसबंदी की गयी।कुत्तों की नसबंदी आसान है क्योंकि ये सड़क पर घूमते हैं, परन्तु पेड़ों पर रहने वाले बंदरों की नसबंदी कैसे होगी समझ से बाहर है।
जनता पिजड़े में बंदर बाहर: बंदरों से जानमाल की सुरक्षा के लिये अनेक मुहल्लों में लोगों ने अपने मकानों को ग्रिल और जाली से इस तरह से घेर लिया है कि दूर से देखने पर मकान किसी बड़े पिंजड़े की तरह दिखता है। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी की एक दिन ऐसा भी आएगा कि मनुष्य घर में कैद होगा और बंदर खुले में विचरण करते मिलेंगे। दिन में पुरूष सदस्यों के घर से बाहर जाने के बाद बंदरों से सर्वाधिक खतरा महिलाओं और बच्चों को होता है।उत्पाती बंदर बेधड़क घर में घुस कर खाने पीने का सामान उठा ले जाते हैं। जरा सा खतरा महसूर होने पर ये हमला कर देते हैं।
धार्मिक मान्यताओं के चलते बंदरों को पकड़ने में बाधा: बंदरों को पकड़ने में सबसे बड़ी बाधा हिन्दू धर्म में फैली एक धार्मिक मान्यता है जिसके तहत बंदरों को भगवान का स्वरूप माना गया है। इसके चलते बंदरों को शारीरिक नुकसान पहुंचाए बिना पकड़ने का प्रयास किया जाता है। नगर निगम और वन विभाग भी बजाय खुद बन्दरों को पकड़ने के मथुरा से एक वर्ग विशेष से संबंधित मंकी कैचर की टीम बुलाते हैं। यह टीम बंदरों को पकड़ने के लिये लोहे के पिजड़े में फल रख देती है। जैसे ही फल की लालच में बंदर पिजड़े में घुसता है पिजड़े का फाटक बंद हो जाता है, लेकिन इस विधि से दिनभर में बमुश्किल 50 बंदर भी पकड़ में नहीं आते। टीम भी पकड़े गए बंदरों को जंगल में छोड़ने के बजाय शहर के बाहरी इलाकों में छोड़ कर लौट आती है। टीम को प्रति बंदर पकड़ने के 300 रुपये दिये जाते है। अब तक यह टीम अनेकों बार बनारस आ चुकी है। बंदर कम पकड़े जाते हैं दिखाया ज्यादा जाता है, इसमे भी घोटाला है। शायद यही कारण है कि लाखों खर्च करने के बाउजूद बंदरों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही है।
नीलगायों की तरह इन्हें भी मारने की मिले छूट
बंदरों से इंसानों की मुक्ति का एक ही उपाय है, वह है जानवर पर मनुष्य की श्रेष्ठता साबित करना। जो जानवर मनुष्य के लिये खतरा उत्पन्न करे, उसे समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जब नीलगायों ने इंसान द्वारा लगायी फसलों को नष्ट करना शुरू किया तो सरकार को इन्हें गोली मारने का आदेश देना ही पड़ा। हालांकि उस समय भी कुछ लोगों ने इसका धार्मिक आधार पर विरोध किया था। जिस प्रकार नीलगायों से परेशान किसानों को जिला प्रशासन बंदूक का लाइसेंस देता है उसी तरह का कुछ उपाय बंदरों के लिये भी करना होगा नहीं तो आनेवाले समय में मनुष्यों का बंदरों से संघर्ष और बढ़ेगा।
अब तक अनेक जानें ले चुके है हिंसक बंदर
बंदरों का इंसानों से मुख्य संघर्ष भोजन को लेकर होता है। जब जंगल कटे तो भोजन की तलाश में बंदरों ने शहर का रुख किया। यहीं से इंसानों और बंदरों के संघर्ष की कहानी शुरू होती है। सिगरा इलाके में बंदरों के एक झुंड ने झपट्टा मारा तो 8 साल का एक लड़का बालकनी से नीचे आ गिरा और उसकी मौत हो गयी। बंदरों ने दुगार्कुंड इलाके में बीएचयू के एक प्रोफेसर को काट कर बुरी तरह घायल किया जिससे उनकी भी मौत हो गयी। मैदागिन इलाके में एक स्कूली छात्रा के ऊपर बंदर ने हमला कर बुरी तरह घायल कर दिया। ये चंद घटनाएं हैं जो मीडिया के जरिये लोगों को पता चली। परन्तु हिंसक बंदरों के हमले में घायल हुए दर्जनों लोगों की खबरें मीडिया तक नहीं पहुंच पायी।