संकल्प लेने में देर नहीं करते


पिछले साल दिसंबर शुरू होते ही सोचना शुरू कर दिया था कि अगले साल के लिए कुछ नए संकल्प जरूर लूंगा और उन्हें पूरा करूंगा। लेकिन पुराना साल चला गया, बजट आकर सबको असमंजस में डाल गया, फरवरी ने खिसकना शुरू कर दिया है और मार्च आने वाला है। सब भूल कर पुन: स्वतंत्रता का मजा लेने लगा लेकिन पिछले दिनों तेजी से आ रहे सामाजिक बदलाव ने मुझे याद दिला दिया कि जरूरी नहीं संकल्प दिसंबर या जनवरी में लिया जाए इसे जब चाहें ले सकते हैं ताकि इससे आराम से मुक्ति भी पाई जा सके। समझ गया, हमें उन जैसा नहीं होना जिन्होंने दर्जनों साल लगा दिए मुक्ति पाने में, अब तो संकल्प लेने की देर है, इधर संकल्प लिया

और जब चाहे मुक्ति।

कई दशक पहले हजारों संकल्प लेकर एक स्वतंत्रता हासिल की अब देखिए हर व्यक्ति इतना स्वतंत्र है, इतना कि उसके पास अनेक स्वतंत्रताएं हैं। आजादी के नए अर्थ खोजने के लिए पुन अनेक संकल्प लिए जा रहे हैं। खुशी की बात है नए अर्थ मिल भी रहे हैं। सबसे बड़े लोकतंत्र के समझदार संकल्प रचने वालों ने रिश्वत का प्रारूप बदल डाला है। देश के वरिष्ठ अनुभवियों से भ्रष्टाचार उन्मूलन मंत्र रचवाया जा रहा है जिसे संकल्प सहित हर कार्यालय में लागू कर दिया जाएगा। योग के माध्यम से महसूस करवाया जाएगा कि मानवीय शरीर और जीवन के लिए भ्रष्टाचार अच्छी वस्तु नहीं है। दीवारों पर संकल्प वाक्य लिखवाए जाएँगे। राष्ट्रप्रेमी नेता ज्यादा जोर शोर से बेहतर भाषण देंगे और बहुत बढ़िया तरीके से बैठकें आयोजित करवाएंगे। विद्यार्थियों को स्कूली स्तर पर प्रेरणा देंगे और लम्बे जुलूस निकालेंगे। पिछले सालों में साफ सुथरे कपड़े पहनकर, स्वच्छ जगह खड़ा होकर, अच्छे शब्दों में संकल्प लेने के कारण ही देश में तरक्की हुई है, अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध उच्चतम स्तर पर हैं, देशवासी हर तरह से संतुष्ट, देवताओं की धरती पर मनचाहे कर्म हो रहे हैं, युवा समझदार होता जा रहा है। कई बार संकल्पों की भीड़ हो जाने के कारण कुछ संकल्प अधूरे रह जाते हैं, बच्चे स्वर्ग चले जाते हैं, मानवता दफन कर दी जाती है और नैतिकता का बलात्कार हो जाता है। यह मानवीय प्रवृति है कि सकारात्मकता के माहौल में नकारात्मकता भी दिमाग में भरते रहते हैं, यह भूल जाते हैं कि संकल्पों के साए में ही धर्म, निष्ठा और कर्तव्य की नई सफलताएँ अर्जित की जा सकी। यदि संकल्प लेने की परम्परा पोषित न की होती तो राजनीति कैसे परिवार के आँगन में खेलती, कैसे बचपन को बचपन में ही खत्म कर देश की जनसंख्या पर काबू पाते। यह संकल्प का कारोबार है कि संस्कारों के नाम पर खून की होली खेलनी ही पड़ती है और कानून पारदर्शक अलमारियों में किताब बन कर रह जाता है। नया संकल्प लेने भर की देर है, यह दृश्य बदलते हुए भी ज्यादा देर नहीं लगेगी।